संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (1)
संस्कृत शास्त्र की प्रारम्भिक कड़ी में प्रस्तुत है “संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा”। प्रवेशिकारूपेण किंचित् आत्मनिवेदन -
क्रान्तदर्शी ऋषियों ने मानव-जीवन में उत्कृष्टत्व की कामना से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप चतुर्विध पुरुषार्थों के रूप में अपने दार्शनिक विचारों को नियोजित एवं विवेचित करते हुए सुख के दो आधार स्वीकार किए - लौकिक एवं आध्यात्मिक। लौकिक सुख में सांसारिक आकर्षण एवं ऐश्वर्य का प्राधान्य होता है, जबकि आध्यात्मिक सुख में त्याग, आत्मसंतुष्टि एवं तप का प्राधान्य होता है। ये दोनों सुख के आधार पुरुषार्थ में ही अन्तर्निहित हैं, जो लौकिक एवं पारलौकिक भेद से द्विधा विभक्त हैं:-
(1) लौकिक पुरुषार्थ:- धर्म, अर्थ एवं काम; जो लोक में त्रिवर्ग के नाम से भी जाने जाते हैं, लौकिक पुरुषार्थ के अन्तर्गत आते हैं।
(2) पारलौकिक पुरुषार्थ:- मोक्ष पारलौकिक पुरुषार्थ के रूप में गृहीत है।
मोक्षरूप पारलौकिक पुरुषार्थ की प्राप्ति अन्योन्याश्रित त्रिवर्ग के परस्पर अविरोधी भाव से सेवन के द्वारा ही हो सकती है। जब तक मानव धर्म, अर्थ एवं काम का सम्यग्रूपेण निर्वाह करते हुए विधि द्वारा निर्दिष्ट अपने सामाजिक दायित्वों को सुव्यवस्थित रूप से संपादित नहीं करता है, तब तक वह कथमपि मोक्षप्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता है। क्योंकि जब तक हृदय की वासनाएं शान्त नहीं होंगी तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। मोक्षप्राप्ति हेतु आवश्यक है कि मानव विद्याग्रहण करने के उपरान्त अपनी पारिवारिक परम्परा एवं धर्मानुसार अर्थोपार्जन करते हुए शास्त्रोचित मर्यादा के पालन पूर्वक गृहस्थ जीवन के आधारभूत ‘काम’ का सुव्यवस्थित रूप से आचरण करते हुए अपने हृदय में निहित सांसारिक वासनाओं को शमित करे। इन त्रिविध लौकिक पुरुषार्थों में से सर्वाधिक कठिन है ‘काम’ रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि।
‘काम’ सृष्ट्युत्पत्ति का मूलाधार है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति परब्रह्म के हृदय से हुयी है। यह जीवन का अनिवार्य अंग है; प्राणी की सद्गति एवं दुर्गति का सहज कारण भी यही है। क्योंकि इस संसार में कोई भी प्राणी बिना ‘कामभावना’ के किसी भी कार्य को करने में सक्षम नहीं हो सकता है। ‘काम’ इस प्राणिजगत की अनिवार्य एवं अपरिहार्य आवश्यकता है। इसे किसी भी रूप में अनदेखा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ‘काम’ पंचज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मन माध्यम से तत्तत् विषयों में आत्मा को होने वाली अनुकूलनात्मक अनुभूति का परिणाम है। यही ‘काम’ पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति के रूप में प्रवृत्त होकर ‘कामविशेष’ कहा गया है। इस फलवती अर्थप्रतीति को समुचित रूप से सम्पादित करने के लिए, जिससे सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग भी हो सके; तद्विषयक शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है।
चूँकि यहां ‘काम’ पुरुषार्थ विषयक चर्चा हो रही है, अतः काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि शास्त्र एवं शास्त्रज्ञजन ही सामान्य जनों को सुव्यवस्थित सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सफल दाम्पत्य-जीवन व्यतीत करने का विधान बता सकते हैं। किन्तु ‘काम’ एवं तद्विषयक शास्त्र के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ भी हैं। धर्म के व्यापक स्वरूप को न समझने वाले व्यक्ति प्रायः कामशास्त्र की उपयोगिता नहीं मानते हैं, अपने को मोक्षमार्गी मानने वाले लोग इसे अनैतिक एवं अश्लील मानते हुए त्याज्य समझते हैं तथा नीतिज्ञ काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान कोटि में खड़ा कर देते हैं। इस पर विचार करना आवश्यक भी है।
वस्तुतः काम न तो अनैतिक है और न ही अश्लील एवं त्याज्य। काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है। कामसूत्रकार का कथन भी है कि मानवेतर जीवों में भी काम की स्वतः प्रवृत्ति पायी जाती है तथा यह नित्य-अविनाशी है, क्योंकि आत्मा रूपी पदार्थ में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। अतः मानवेतर प्राणियों को संसर्गसुख की प्राप्ति हेतु उनकी स्वाभाविक इच्छा ही पर्याप्त होती है, क्योंकि उनमें स्त्री जाति स्वतंत्र, बन्धनरहित एवं आवरणरहित होती है, ऋतुकाल में ही उनकी सोद्देश्य पूर्ति हो जाती है और यह प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक नहीं होती है। अतः उनका यह सहजधर्म किसी प्रकार के शास्त्ररूपी उपाय की आवश्यकता नहीं रखता है। किन्तु मानव के साथ ऐसी बात नहीं है। क्योंकि परस्पर संसर्ग में स्त्री-पुरुष परस्पर अधीन होते हैं, अतः उन्हें अपनी जैविक इच्छा की पूर्ति एवं पारस्परिक पराधीनता से बचने के लिए शास्त्र रूपी उपाय की आवश्यकता होती है। अत: ऐसे सभी प्रकार के उपाय, जो दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं; का ज्ञान कामसूत्र का भलीभॉति अध्ययन करने से ही संभव है। कामसूत्रकार का कथन भी यही है - ‘शरीरस्थितिहेतुत्वात् आहार सधर्माणो कि कामः। फलभूताश्च धर्मार्थयोः। (कामसूत्र 1/2/37)’ अर्थात् शारीरिक स्थिति को व्यवस्थित बनाने में सहयोगी होने के कारण ‘काम’ भी आहार के ही समान है एवं धर्म-अर्थ फलभूत भी यही है। यही आचार्य वात्स्यायन की स्पष्ट धारणा है। चूँकि सभी प्रकार की प्रवृत्तियॉ पुरुषार्थ से ही सम्पन्न होती हैं, अतः उसके उपाय को जानना आवश्यक है। यदि ‘काम’ को त्याज्य मान लिया जाएगा तो धर्म और अर्थ पूर्णतः निष्प्रयोज्य हो जाएंगे।
अतएव निर्विवादरूपेण कहा जा सकता है कि मनुष्य समाज की अनुकूलता के अनुसार अपने सम्पूर्ण कामसुखों की प्राप्ति संयम एवं मर्यादा का पालन करने के अनन्तर ही कर सकता है; जिसकी शिक्षा उसे कामसूत्र के अध्ययन से ही प्राप्त हो सकती है। क्योंकि जो व्यक्ति कामशास्त्र के तत्व को भलीभाँति जानता है, वह निश्चित रूपेण धर्म, अर्थ एवं काम में परस्पर सामंजस्य स्थापित करते हुए जितेन्द्रिय भाव से सफल दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हुए अपने लोक-व्यवहार की सुव्यवस्थित रूप से रक्षा कर सकता है। कामसूत्रकार ने कहा भी है -
रक्षन्धर्मार्थकामानां स्थितिं स्वां लोकवर्तिनीम्।
अस्य शास्त्रस्य तत्वज्ञो भवत्येव जितेन्द्रियः।। (कामसूत्र 7/2/58)
यदि संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा विषयक मेरा यह प्रयास सुधीजनों को आत्मिक संतोष प्रदान करते हुए कामशास्त्र एवं कामसूत्र के संबन्ध में प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को निर्मूल करने में सहायक हो सके, यही इस परिश्रम का प्रतिफल एवं कार्य की सफलता होगी।
पुनश्च यदि मेरे इस प्रयास में उल्लिखित किसी पंक्ति अथवा टिप्पणी से किसी को असुविधा हो,तो मार्गदर्शन की अपेक्षा भी है। कालिदास ने कहा भी है - ‘आपरितोषाद् विदुषां न साधु’।
क्रमशः ................
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