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शनिवार, 4 दिसंबर 2010

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (4)

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (4)
गतांक से आगे ....

02. आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु कृत सुखशास्त्र कामसूत्र:

आचार्य नन्दी के पश्चात् कामशास्त्रीय आचार्यपरम्परा में अगले महत्त्वपूर्ण आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु हुए। आचार्य वात्स्यायन के अनुसार श्वेतकेतु ने आचार्य नन्दीप्रोक्त कामसूत्र को संक्षिप्त कर पाँच सौ अध्यायों में सम्पादित किया -
तु पंचभिरध्यायशतैः औद्दालकिः श्वेतकेतुः संचिक्षेप। (काम01/1/9)
आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु के विषय में विभिन्न ग्रन्थों का अनुशीलन करने पर विशिष्ट तथ्य प्राप्त होते हैं। महाभारत में सभापर्व के तृतीय अध्याय के अनुसार आचार्य श्वेतकेतु पंचाल निवासी महर्षि आरुणि पांचाल, जो उद्दलनकर्म के कारण उद्दालक नाम से प्रसिद्ध थे; के पुत्र थे। छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में इन्हें आरुणेय नाम से भी स्मरण करते हुये इन्हें गौतम गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। महाभारत में ही शान्तिपर्व के 220वें अध्याय के अनुसार इनका विवाह शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मणों में प्रवर के रूप में स्मृत ब्रह्मर्षि देवल की परमविदुषी कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था। ये परम योगी, न्यायविशारद्, क्रियाकल्पविद् एवं विविध शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। इनके एवं आचार्य नन्दी के मध्य मिथुनकर्म अर्थात् कामशास्त्र को वाजपेययज्ञ के समान स्वीकारने वाले आरुणि उद्दालक, मौद्गल्य नाक एवं कुमारहारीत आदि मुनि हुए थे -
एतद्ध स्म वै तद् विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान् कुमारहारीत आह......। (बृहदारण्यक06/4/4)
इन लोगों ने सम्भवतः नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र को यथावत् ही रहने दिया। आरुणि उद्दालक के बाद उनके पुत्र श्वेतकेतु ने नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन करते हुए उसको पाँच सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। कामसूत्र की जयमंगला टीका के प्रणेता आचार्य यशोधर औद्दालकि श्वेतकेतु द्वारा सुखशास्त्र कामशास्त्र की रचना पर एक कथन उद्धृत करते हुए कहते हैं कि लोक को मर्यादित करने के उद्देश्य से पिता की आज्ञा होने पर तपोनिष्ठ श्वेतकेतु ने सुखशास्त्र की रचना की -
तथाचोक्तम् -
‘मद्यपानान्निवृत्तिश्च ब्राह्मणानां गुरोः सुतात्।
परस्त्रीभ्यश्च लोकानां ऋषेरौद्दालकादपि।।
ततः पितुरनुज्ञानाद् गम्यागम्यव्यवस्थया।
श्वेतकेतुस्तपोनिष्ठः सुखं शास्त्रं निबद्धवान्।।’
इति। (काम0जय01/1/9)
बृहद्देवता के उल्लेखानुसार श्वेतकेतु, गालव आदि नौ ऋषियों को पौराणिक कवि माना गया है -
नवभ्य इति नैरुक्ताः पुराणाः कवयश्च ये।
मधुकः श्वेतकेतुश्च गालवश्चैव मन्यते।। 1/24।।

आचार्य श्वेतकेतु वैदिकालीन ऋषिपरम्परा के मान्य विद्वान् हैं। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में इनके मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापन प्रकरण में स्त्रीपुरुष के कामसंवेगों एवं स्खलन की पुष्टि हेतु, पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्म प्रकरण में दूतीप्रयोग के विषय में खण्डन हेतु तथा वैशिक अधिकरण के अर्थानर्थानुबन्ध संशयविचार प्रकरण में अर्थानर्थरूप उभयतोयोग कथन हेतु’ प्रस्तुत करते हैं।

03. आचार्य बाभ्रव्य पांचाल कृत कामसूत्र

आचार्य श्वेतकेतु के पश्चात् कामशास्त्र को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया पंचालवासी आचार्य बाभ्रव्य ने। इन्होंने आचार्य श्वेतकेतु द्वारा सम्पादित सुखशास्त्रपरक कामशास्त्र का पुनः संपादन कर उसे साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासंप्रयुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिक; इन सात अधिकरणों में विभाजित कर एक सौ पचास अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। इसका उल्लेख करते हुए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं -
तदेव तु पुनरध्यर्धेनाध्यायशतेन साधारण साम्प्रयोगिक कन्यासंप्रयुक्तक भार्याधिकारिक पारदारिक वैशिक औपनिषदिकैः सप्तभिरधिकरणैः बाभ्रव्यः पांचालः संचिक्षेप। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य बाभ्रव्य के विषय में विविध पौराणिक एवं अन्य ग्रन्थों में जो तथ्य प्राप्त होते हैं, उनमें से मत्स्यपुराण के अनुसार आचार्य बाभ्रव्य पंचालनरेश ब्रह्मदत्त के मंत्री थे। इनका पूर्ण नाम सुबालक बाभ्रव्य था, ये कामशास्त्र प्रणेता एवं सर्वशास्त्रज्ञ थे तथा लोक में पांचाल के नाम से प्रसिद्ध थे-
कामशास्त्र प्रणेता च बाभ्रव्यस्तु सुबालकः।
पांचाल इति लोकेषु विश्रुतः सर्वशास्त्रवित्।।
मत्स्यपुराण 50/24-25।।
हरिवंशपुराण में हरिवंशपर्व के 23-24वें अध्याय के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ऋग्वेदीय बह्वृच शाखानुयायी, धर्म-अर्थ-काम के तत्त्वज्ञ थे; उन्होंने वैदिकों में प्रसिद्ध ऋग्वेद के क्रमपाठ की विधि एवं शिक्षा नामक वेदांग का प्रणयन किया था। उक्त सन्दर्भ ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य ग्रन्थ ऋक्प्रातिशाख्यम् के क्रमहेतु पटल के 65वें सूत्र में भी प्राप्त होता है, जिसके अनुसार आचार्य बाभ्रव्य ऋग्वेद के क्रमपाठ के प्रणेता भी थे -
इति प्र बाभ्रव्य उवाच च क्रमं, क्रम प्रवक्ता प्रथमं शशंस च।।
उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि महाभारत के शान्तिपर्व के 342 वें अध्याय के इस उद्धरण से भी होती है -
पांचालेन क्रमः प्राप्तस्तस्माद् भूतात्सनातनात् ।
बाभ्रव्यगोत्रः स बभौ प्रथमं क्रमपारगः ।।103।।
नारायणाद् वरं लब्ध्वा प्राप्ययोगमनुत्तमम् ।
क्रमं प्रणीय शिक्षां च प्रणयित्वा स गालवः ।।104।।
अर्थात् गालव अपरनाम बाभ्रव्यगोत्रीय पांचाल ने श्रीनारायण की उपासना से प्राप्त वर के प्रभाव से ऋग्वेद के क्रमपाठ का प्रणयन करने के साथ ही शिक्षाग्रन्थ का भी प्रणयन किया। ये ऋग्वेद की बह्वृच शाखा के प्रवर्तक आचार्य भी थे। आचार्य वात्स्यायन भी इन्हें बह्वृच शाखा का प्रवर्तक स्वीकारते हुए कहते हैं कि कुछ लोगों के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ने ही ऋग्वेद की बह्वृच शाखा को 64 भागों में विभक्त किया था। अतः कामशास्त्र का वेद के साथ संबन्ध की पुष्टि एवं कामशास्त्र की महत्ता प्रकट करने के लिए ऋग्वेद की भाँति ही साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी बाभ्रव्य पांचाल ने 64 अंगों वाला बनाया -
पंचाल सम्बन्धाच्च बह्वृचैरेषां पूजार्थं संज्ञा प्रवर्तिता इत्येके।। (कामसूत्र2/2/3)
इस सूत्र को विवेचित करते हुए कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर कहते हैं - ‘पांचाल बाभ्रव्य के संबन्ध से भी इस कामशास्त्र को चतुःषष्टि कहा गया है। महर्षि बाभ्रव्य पांचाल ने ऋग्वेद को 64 भागों में विभक्त किया है और अपने द्वारा संपादित कामसूत्र के साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी इन्होंने आलिंगन, चुम्बन, नखक्षत, दन्तक्षत, संवेशन, सीत्कार, पुरुषायित, एवं औपरिष्टक रूप 64 भागों में विभक्त किया’। सुश्रुतसंहिता के टीकाकार आयुर्वेदाचार्य डल्हण के अनुसार व्याकरणशास्त्र के प्रवक्ता बाभ्रव्य पांचाल गालव भगवान धन्वन्तरि के शिष्य थे। संस्कृत साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ0 537 पर वाचस्पति गैरोला के उल्लेखानुसार आचार्य बाभ्रव्य ने संहिता, ब्राह्मण, क्रमपाठ, कामसूत्र, शिक्षा, निरुक्त, व्याकरण, दैवतग्रन्थ, शालाक्यतंत्र आदि विषयों एवं नामों से विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया था। बृहद्देवता 1/24 के उल्लेखानुसार महर्षि गालव भी श्वेतकेतु की भॉति ही पौराणिक कवि एवं निरुक्तकार थे। गालव अपरनाम वाले आचार्य बाभ्रव्य पांचाल के मतों का उल्लेख ऐतरेय आरण्यक, बृहद्देवता, निरुक्त, अष्टाध्यायी, वायुपुराण, चरकसंहिता, भाषावृत्ति, कामसूत्र आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।
आचार्य बाभ्रव्य पांचाल द्वारा संपादित कामसूत्र तो काल के प्रवाह में विलुप्त हो गया। हॉ ! आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में बाभ्रव्य पांचाल के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मविमर्शप्रकरण में परस्त्री के गम्यागम्यत्व कथन के प्रसंग में; साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापनप्रकरण में रतिजनित आनन्द के विवेचन के प्रसंग में, आलिगंनविचारप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा संप्रयोगकला को आठ भेदों में विभक्त कर पुनः उनके आठ-आठ उपभेद कर कामकला को चतुःषष्टि पांचालिकी कला बताने तथा बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित आलिंगन के आठ भेदों के कथन के प्रसंग में, संवेशनविधिप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित संवेशन के भेदकथन के प्रसंग में; भार्याधिकारिक अधिकरण के ज्येष्ठादिवृत्तप्रकरण के पुनर्भूप्रकरण में तत्कालीन समाज में कई स्त्रियों का पति से असंतुष्ट हो कर अन्य प्रणयी एवं समर्थ पुरुष को पति रूप में स्वीकार करने के लोकव्यवस्था कथन के प्रसंग में; पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्मप्रकरण में परदाराभियोग हेतु दूती प्रयोग के संबन्ध में तथा अन्तःपुरिकावृत्तप्रकरण में राजाओं के अन्तःपुर में रहने वाली स्त्रियों के स्वभावपरीक्षण के संबन्ध में; वैशिक अधिकरण के अर्थादिविचारप्रकरण में वेश्या द्वारा अर्थागम के संदर्भकथन में; औपनिषदिक अधिकरण के नष्टरागप्रत्यानयनप्रकरण में नारी की जैविक संतुष्टि हेतु निर्मित एवं प्रयुक्त होने वाले त्रपुष (रांगा), शीशक आदि के कृत्रिम शिश्न के गुणकथन के संदर्भ में’ नाम सहित प्रस्तुत करते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि कामसूत्र टीकाकार आचार्य यशोधर के काल तक बाभ्रव्य पांचाल प्रणीत ग्रन्थ के कुछ अंश उपलब्ध थे; क्योंकि उन्होंने जयमंगला टीका में बाभ्रव्य पांचाल के मतों को संाप्रयोगिक अधिकरण के प्रथम अध्याय के 34वें सूत्र की टीका में तथा पारदारिक अधिकरण के चतुर्थ अध्याय के 62वें सूत्र की टीका में उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त सप्तदश शतक के आचार्य सामराज दीक्षित के पुत्र कामराज दीक्षित ने कामसूत्र में प्राप्त सामान्य श्लोकों एवं आनुवंश्य श्लोकों को बाभ्रव्यकृत मानते हुए उनका पृथक् बाभ्रव्यकारिका नाम से संग्रह कर उस पर लघुटीका का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ पं0 ढुण्ढिराज शास्त्री द्वारा संपादित होकर कामकुंजलता के अष्टम मंजरी के रूप में चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से सन् 1967 ई0 में प्रकाशित हुआ है।
इस प्रकार कामशास्त्र को बाभ्रव्य ऋणी मानते हुए यह स्पष्टरूपेण कहा जा सकता है कि वर्तमान में कामसूत्र का जो स्वरूप प्राप्त होता है, उसकी क्रमबद्ध आधारशिला आचार्य बाभ्रव्य ने ही रखी। आचार्य बाभ्रव्य वैदिककालीन ऋषिपरम्परा के आचार्य एवं ऐतरेयब्राह्मण काल से पूर्व के हैं।

04. आचार्य दत्तक कृत दत्तकसूत्र:

आचार्य बाभ्रव्य के पश्चात् कामशास्त्रीय ग्रन्थपरम्परा एकांगी होने लगी। कामसूत्र में प्राप्त विवरण के अनुसार पाटलिपुत्र निवासी माथुर ब्राह्मण आचार्य दत्तक ने पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामसूत्र के छठें अधिकरण वैशिक अधिकरण को आधार बनाकर स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की -
तस्य षष्ठं वैशिकमधिकरणं पाटलिपुत्रिकाणां गणिकानां नियोगाद्दत्तकः पृथक्चकार। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य दत्तक एवं तत्कृत दत्तकसूत्र के विषय में यत्किंचित विवरण प्राप्त हैं, वे कुछ कामशास्त्रीय ग्रन्थों, नाट्यकृतियों एवं अभिलेखीय संदर्भ से ही प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त सूत्र की टीका में आचार्य यशोधर इनके विषय में विवरण देते हुए कहते हैं कि ये पाटलिपुत्र निवासी किसी माथुर ब्राह्मण के पुत्र थे। इनके जन्मकाल के कुछ समय पश्चात् ही इनके माता-पिता दिवंगत हो गये थे; एक ब्राह्मणी ने इन्हें अपना दत्तकपुत्र बना लिया जिसके कारण ये दत्तक नाम से प्रसिद्ध हुए। वयःसन्धि तक ये सभी विद्याओं एवं कलाओं में प्रवीण हो गए थे। कलाओं के प्रति आसक्ति होने से आचार्य दत्तक प्रायः पाटलिपुत्र की कलाशास्त्र में प्रवीण गणिकाओं के ही संसर्ग में रहा करते थे, जिसके कारण कामशास्त्र के आचार्य के रूप में इन्हें विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई। बाद में पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामशास्त्र के वैशिक अधिकरण पर इन्होंने स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन किया।
कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य दत्तक का उल्लेख अष्टम शतक के कश्मीरी कवि दामोदरगुप्त प्रणीत ‘कुट्टनीमतम्’ नामक काव्य ग्रन्थ में 77वें एवं 122वें श्लोक में प्राप्त होता है। प्रथम शतक के रूपककार महाकवि शूद्रक स्वकृत ‘पद्मप्राभृतकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकसूत्र’ ग्रन्थ का नामतः उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वेश्या के आंगन में घुसा हुआ भिक्षु उसी प्रकार शोभित नहीं होता है, जिस प्रकार वैशिक अधिकरण पर आधारित ‘दत्तकसूत्र’ नामक ग्रन्थ में पवित्र ओंकार शब्द शोभित नहीं होता है -
वेश्यांगणं प्रविष्टो मोहाभिक्षुर्यदृच्छया वाऽपि।
न भ्राजते प्रयुक्तो दत्तकसूत्रेष्विवोंकार।। 24।।
आचार्य दत्तक प्रणीत तीन सूत्रों के स्पष्ट विवरण प्राप्त होते हैं। जिनमें से प्रथम उल्लेख गुप्तकालीन कवि ईश्वरदत्त प्रणीत ‘धूर्तविटसंवाद’ नामक भाणरूपक में ‘आपुमान शब्दकामः इति दात्तकीयाः’ कहकर, द्वितीय उल्लेख सप्तम शतक के कवि आर्य श्यामलिक प्रणीत ‘पादताडितकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकेनाप्युक्तम्- कामोऽर्थनाशः पुंसाम्’ कहकर तथा तृतीय उल्लेख आचार्य यशोधर प्रणीत कामसूत्र के सूत्र संख्या 6/3/20 की टीका में ‘भाण्डसम्प्लवे विशिष्टग्रहणम्’ इति दत्तकसूत्रस्पष्टार्थम्।’ कहकर प्राप्त होता है।
‘दत्तकसूत्र’ पर दक्षिणभारत के गंगवंश के शासक श्रीमन्माधवमहाधिराज ने टीका का प्रणयन किया था। ‘केरेगालूर’ में प्राप्त गंगवंशी नरेश के दानपत्र के अनुसार गंगवंशी राजा दुर्विनीत ने बृहत्कथा को देवभारती के स्वरूप में उपनिबद्ध किया था एवं उसी के पूर्वज श्रीमन्माधवमहाधिराज ने ‘दत्तकसूत्र’ पर वृत्ति लिखी थी -
स्वस्ति श्री जितं। भगवता गतधनगगनाभेन पद्मनाभेन। श्रीमज्जाह्नवेयकुलामलव्योमावभासनभास्करः सुखंगैकप्रहारखण्डित महाशिलास्तम्भबलपराक्रमः काण्वायन सगोत्र श्रीमत्कोंगुणिमहाधिराजो भुवि विभुतमोऽभवत्। तत्पुत्रो नीतिशास्त्रकुशलो दत्तकसूत्रस्यवृत्तेः प्रणेता श्रीमन्माधवमहाधिराजः।
दत्तकसूत्र के वृत्तिकार श्रीमन्माधवमहाधिराज काण्वायन गोत्रीय गंगवंशीय ब्राह्मण नरेश थे। जिनका समय इतिहासज्ञों द्वारा पंचम शतक पूर्वार्द्ध स्वीकृत है। A Triennial Catalogue of manuscripts collected for the Government Orintal Manuscripts Library, Madras में संख्या 3220(b) प्राप्त विवरण के अनुसार दत्तकसूत्र पर एक अज्ञात विद्वान् द्वारा रचित वृत्ति अपूर्ण रूप में गवर्नमेन्ट ओरिएण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, चेन्नई में सुरक्षित है।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य दत्तक का यह सूत्रग्रन्थ संभवतः दशम शतक तक पूर्णतया सुरक्षित रहा; कालान्तर में सुरक्षा के अभाव के कारण यह ग्रन्थ लुप्तप्राय हो गया। आचार्य वात्स्यायन के कथनानुसार कामसूत्र के वैशिक अधिकरण का संपूर्ण आधार प्रायः दत्तकसूत्र से ही ग्रहण किया गया है। मान्यतानुसार इस ग्रन्थ में तत्कालीन सामाजिक विधान को दृष्टिगत रखते हुए गणिकाजनों के लाभहानि के बारे में विस्तृत निर्देश सहित वेश्याजनोचित चतुःषष्टि पांचालिकी कामकलाओं का संपूर्ण विवरण उपनिबद्ध था। इनका समय ईशवीय पूर्व में माना जा सकता है।

क्रमशः..........

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

अन्योक्तियॉ (1)


अन्योक्तियॉ (1)

बात पुरानी है, एक नगर में एक परिवार रहता था। जिसमें कुल सात सदस्य थे पति-पत्नी, तीन पुत्र और दो कन्याएं। उस परिवार का ज्येष्ठ पुत्र विवाहित हुआ, नवदाम्पत्त्य के दिन हास-परिहास, आमोद-प्रमोद में व्यतीत होने लगे। इसी बीच कब उस दम्पत्ति के ऑगन में दो पुष्प खिल गए इसका उन्हें भान ही न रहा। समय अपनी गति से चलता रहा, संयोग से उस पुत्र की आजीविका बहुत दूर लग गई और वह अपनी नौकरी के लिए चला गया।

अब दोनों पति-पत्नी एक-दूसरे की याद में खोए रहने लगे। यहॉ घर में वह प्रवत्स्यत्पतिका गृहिणी सोचती थी कि चलो भले ही मुझे प्रियतम से वियोग है किन्तु वे जहॉ भी हैं सुख से तो है। उधर बेचारा विरहविधुर पति, अपने माता-पिता की सुविधा और बच्चों के भविष्य को अर्थाधीन मान कर नानाविध प्रवासजनित समस्याओं एवं कष्टों सहन करते हुए किसी प्रकार अपनी आजीविका से अपने जोड़े हुए था।

विरहव्यथित दम्पत्ति की इस अवस्था को देखकर कोई कवि सहसा अन्योक्ति के माध्यम से कह उठता है -

हंसी वेत्ति परागपिंजरतनुः कुत्रापि पद्माकरे,
प्रेयान् मे बिसकन्दलीं कवलयन् भुंक्ते स्वयं स्वेहया।
नो जानाति तपस्विनी यदनिशं जंबालमालोडयन,
शैवालाकुंरमप्यसौ न लभते हंसो विशीर्णच्छदः।।


अर्थात् ‘हंसिनी सोच रही है कि मेरे प्रियतम राजहंस इस दुर्दिन से दूर कहीं किसी कमलवन के पराग से सुवासित सरोवर में रह रहे हैं और वे वहॉ अपनी इच्छा भर कमलनाल का भक्षण करते होंगे। किन्तु वह बेचारी हंसिनी यह नहीं जानती कि उसका राजहंस किसी कीचड़ भरे दलदल में फंसा हुआ है जहॉ उसे खाने के लिए सेवार आदि भी नहीं प्राप्त हो पा रहे हैं और उसका शरीर कुपोषण से कान्तिहीन हो गया है’।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (3)

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (3)

कामशास्त्र का उद्भव एवं विकास:

कामशास्त्र के उद्भव का आदिकारण वेद है। जो ‘काम’ की उत्पत्ति परमपुरुष से स्वीकार करता है। इस ‘काम’ के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकृष्ट होकर संयोग करती है, क्योंकि संकल्प के मूल में काम की ही भावना होती है - ‘कामो संकल्प एव हि’। इसी कारण काम को ही सृष्टि माना गया है जिसका प्राणिमात्र पर दुर्दमनीय प्रभाव है। आचार्य वात्स्यायन काम की सार्वभौमिक परिभाषा देने के अनन्तर लोक में रूढ़ काम के व्यावहारिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि नारी-पुरुष का परस्पर विशेष अंगस्पर्शरूप आनन्द की जो सुखानुभूतिपरक फलवती अर्थप्रतीति होती है, प्रायः उसे ही लोक में ‘काम’ कहा गया है –
‘स्पर्शविशेष विषयात्वस्याभिमानिक सुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात्कामः'।(कामसूत्र 1/2/12)
यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्शविशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिकरूपेण आनन्ददायक व्यवहाररूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इसी कारण कामानन्द को ब्रह्मानन्दसहोदर माना गया है।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा कथित ‘फलवती अर्थप्रतीतिः’ शब्द में ही कामशास्त्र के विकास की प्रक्रिया को व्यंग्यात्मक रूप में स्पष्ट किया गया है, क्योंकि कामशास्त्र का जो धर्मार्थ समन्वित, अनुमोदित एवं मर्यादित कामोपभोगरूप उद्देश्य है उसकी आधारशिला वेदों में ही पड़ गयी थी। वेदों में प्रतिपादित यत्किंचित कामशास्त्रीय विचारपद्धति उपनिषत्काल में और विकसित हुयी। ‘छान्दोग्योपनिषद्’ में स्त्रीसंसर्ग की तुलना सामवेद के वामदेव्यगान से करते हुए कहा गया है कि - प्रेयसी को संदेश भेजना ‘हिंकार’ है। उसे प्रसन्न करने की चाटुकारिता ‘प्रस्ताव’ है। उसके साथ शयन ‘उद्गीथ’ है। संसर्ग ‘प्रतिहार’ है तथा मिथुनभाव के अवसान पर होने वाला वीर्यस्खलन ‘निधन’ है –
‘उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं पारं गच्छति तन्निधनमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतम्’।(छान्दोग्य02/13/1)
दाम्पत्यसुख की तुलना पवित्र वामदेव्यगान से करके उसकी महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। पुनः ‘बृहदारण्यकोनिषद्’ के षष्ठ अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण में प्रतिपादित पुत्रमन्थकर्म या सन्तानोत्पत्तिविज्ञान, जो कि सम्भवतः कामशास्त्र का अब तक प्राप्त व्यवस्थित प्राचीनतम स्वरूप है; के द्वारा मर्यादित एवं सुव्यवस्थित दाम्पत्यसुख के कार्य-व्यापार को प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रकार उपनिषद् का ऋषि शिष्य को पूर्णरूपेण शिक्षित करने के बाद उसका समावर्तन संस्कार कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति देते हुए उससे कहता है –
‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्माप्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।’(तैत्तिरीय01/11/1)
अर्थात् ”वत्स ! सदा सत्य बोलना, धर्म का आचरण करते रहना, अप्रमत्त होकर वेदों का स्वाध्याय करना तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके सन्तानोत्पादन की परम्परा की वृद्धि करना।“ यहाँ सन्तानपरम्परा का विच्छेद न होने पाए, इसलिए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व ब्रह्मचारी को विधिवत् सन्तानोत्पत्तिविज्ञान रूप पुत्रमन्थकर्म की शिक्षा दी जाती थी; जो कामशास्त्र का औपनिषदिक रूप है।

कामशास्त्रीय ग्रन्थ-परम्परा:

प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित वेद ही त्रयीविद्या या त्रिवर्गशास्त्र आदि नामों से प्रसिद्ध है। क्योंकि छान्दोग्य श्रुति कहती है कि ‘प्रजापति ने लोकों के उद्देश्य से ध्यान रूप तप किया। उन अभितप्त लोकों से त्रयीविद्या की उत्पत्ति हुयी –
‘प्रजापतिः लोकान् अभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यः त्रयीविद्या संप्रास्रवत्तां अभ्यतपत्’। (छान्दोग्य02/23/2)
आचार्य वात्स्यायन भी कामसूत्र में कामशास्त्र की परम्परा बताते हुए कहते हैं कि ‘प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करके उसके जीवन को सुव्यवस्थित एवं नियमित करने के उद्देश्य से त्रिवर्गशास्त्र परक संविधान का सर्वप्रथम एक लक्ष श्लोकों में प्रवचन किया’ –
‘प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य साधनमध्यायानां शतसहस्त्रेणाग्रे प्रोवाच’। (कामसूत्र 01/01/05)
उपर्युक्त संविधानरूप त्रिवर्गशास्त्र का समर्थन एवं उल्लेख करते हुए महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कहते हैं:-
‘ततोऽध्यायसहस्त्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवाभिवर्णितः।।
त्रिवर्ग इति व्याख्यातो गण एष स्वयम्भुवा’।
(महाभारत शान्तिपर्व 59/29-30)
इसी प्रकार मत्स्यपुराणकार भी शतकोटि प्रविस्तर त्रिवर्गसाधनभूत पुराणसंहिता का उल्लेख करते हैं -
‘पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृतं।
पुराणमेकमेवासीत् तदा कल्पान्तरेऽनघः।।
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्।’
(मत्स्यपुराण 53/3-4)
साधारणतया लोग त्रयीविद्या का आशय ‘ऋग्यजुःसाम’ परक ग्रहण करते हैं। किन्तु वेद तो स्वयमेव ब्रह्मविद्या के अधिष्ठान हैं और त्रयीविद्या उसके अंगरूप। यदि महाभारत, मत्स्यपुराण एवं कामसूत्र में कथित प्रजापति द्वारा लक्षश्लोक प्रतिपादित त्रिवर्गशास्त्र के साथ इस त्रयीविद्या का सामंजस्य स्थापित किया जाय, तो संगति स्वयमेव बैठ जाती है कि ‘छान्दोग्यश्रुति’ द्वारा कथित त्रयीविद्या, त्रिवर्गशास्त्र ही है तथा यह त्रयीविद्या/त्रिवर्गशास्त्र ब्रह्मविद्या का ही अंग है। यह शतसहस्त्र अध्यायों वाला त्रिवर्गशास्त्र धर्म, अर्थ एवं काम के सांगोपांग विवेचन एवं विधि व्यवस्था से परिपूर्ण था। ब्रह्मा ने उस शास्त्र के द्वारा समाज की व्यवस्था, सुरक्षा एवं उत्तरोत्तर विकास की भूमिका प्रस्तुत की।
कालान्तर में इस शतसहस्त्र प्रविस्तर पुराणसंहिता त्रिवर्गशास्त्र के धर्म, अर्थ एवं काम रूप तीनों स्तम्भों के अनुसार क्रमशः उस ‘आचारसंहिता’ के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नन्दिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया। यहीं से कामशास्त्र की ग्रन्थ-परम्परा का श्रीगणेश हुआ। इस ग्रन्थ परम्परा को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा रहा है -
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ।
(ख) वात्स्यायन कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ।

(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ:

कामसूत्र की पूर्ववर्ती ग्रन्थपरम्परा का अधिकांश विवरण हमें कामसूत्र से ही प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के प्रथम अधिकरण में पूर्ववर्ती कामशास्त्रीय ग्रन्थों का उल्लेख किया है, जिनका विवरण इस प्रकार है -

०१. आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर प्रोक्त कामसूत्र:

आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र का आदि आचार्य महादेवानुचर नन्दी को स्वीकारते हुए कहते हैं कि प्रजापति द्वारा प्रवचित त्रिवर्गशास्त्र में से एक हजार अध्यायों वाले कामशास्त्रीय भाग को उससे पृथक् कर महादेवानुचर नन्दी ने उसे स्वतंत्र रूप दे दिया –
‘महादेवानुचरश्च नन्दी सहस्त्रेणाध्यायानां पृथक् कामसूत्रं प्रोवाच’। (कामसूत्र1/1/8)
महादेवानुचर नन्दी का विस्तृत परिचय हमें शिवपुराण की शतरुद्रसंहिता के अध्याय 6 एवं 7 से प्राप्त होता है। जिसके अनुसार “नन्दी शालंकायनपुत्र शिलादि ऋषि के पुत्र थे। इनका जन्म शिव के वरदानस्वरूप हुआ था। इन्होंने सांगोपांग वेदों सहित अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन किया था। इनका विवाह मरुद्गण की कन्या ‘सुयशा’ के साथ हुआ था। भगवान शिव ने इन्हें अमरत्व प्रदान कर अपने गणनायकों का अध्यक्ष बना दिया था”। ऐसा ही उल्लेख वराहपुराण एवं कूर्मपुराण में भी प्राप्त होता है। कामसूत्र में सूत्र 1/1/8 की टीका में आचार्य यशोधर नन्दी के कामसूत्र के विषय में एक अनुश्रुति का उल्लेख करते हुए कहते हैं –
तथा हि श्रूयते - ‘दिव्यवर्षसहस्त्रं उमया सह सुरतसुखं अनुभवति महादेवे वासगृह द्वारगतो नन्दी कामसूत्रं प्रोवाच’ इति
कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वात्स्यायन के समय में नन्दीप्रोक्त कामसूत्र लगभग नष्ट हो चुका था। रतिरहस्यकार आचार्य कोक्कोक भी रतिरहस्य में कामशास्त्र के आदि आचार्य के रूप में नन्दिकेश्वर का स्मरण करते हैं। रसरत्नसमुच्चयकार इनका स्मरण आयुर्वेदज्ञ के रूप में करते हुए इन्हें ‘नाभियन्त्र’ का आविष्कारक बताते हैं –
‘नाभियन्त्रमिदं प्रोक्तं नन्दिना सर्ववेदिना’। (रसरत्नसमुच्चय, पूर्वखण्ड - 9/26)
काव्यमीमांसा के प्रथम अध्याय, शास्त्रसंग्रह में आचार्य राजशेखर ने नन्दिकेश्वर को रस का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। मेघदूत उत्तरमेघ के 15वें श्लोक की विद्युल्लता टीका में टीकाकार आचार्य पूर्णसरस्वती ने पद्मिनी नायिका का छः श्लोकों में लक्षण प्रस्तुत करते हुए उक्त लक्षणवाक्यों को नन्दीश्वर कृत बताया है। उपर्युक्त विवरणों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर नाट्यशास्त्र, कामशास्त्र, रसशास्त्र, आयुर्वेद, वेदविद्या आदि के प्रामाणिक आचार्य थे।

क्रमशः ..........

शनिवार, 25 सितंबर 2010

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (2)

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (2)


महाकाल की अविरल धारा में निरन्तर प्रवहमान विश्ववारा वाक्स्वरूपा भगवती भारती अपनी परा-पश्यन्ती-मध्यमा-वैखरी रूपी शक्तियों के द्वारा भारतीय मनीषा की चिन्तनशक्ति को प्रतिबोधित कर संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान की समष्टि को अवधारित करते हुए विश्वमनीषा को उद्बोधित करने वाले संस्कृत वाङ्मय के विशाल कलेवर में श्रीवृद्धि करने वाली आर्यमनीषा के चिन्तक क्रान्तदर्शी ऋषियों ने ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक पक्ष पर अपने चिन्तन को लोक कल्याणार्थ प्रस्तुत किया है। मानव-जीवन को अनुशासित करने उद्देश्य से प्रजापति ब्रह्मा ने एक आचार संहिता का निर्माण किया, जिसे कालान्तर में ऋषियों ने त्रिवर्गरूप पुरुषार्थ के अनुसार पृथक्शास्त्र के रूप में प्रवचित किया। कालान्तर में उस आचार संहिता के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नंदिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया।

कामशास्त्र के प्रतिष्ठापक आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन कामसूत्र के मंगलाचरण परक अपने प्रथम सूत्र धर्मार्थकामेभ्यो नमः“(कामसूत्र 1/1/1) के द्वारा किसी देवी-देवता की वन्दना न कर ग्रन्थ-प्रतिपाद्य धर्म, अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग की वन्दना करते हैं। कारण ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र; ये चतुर्वर्ण तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास; ये चार आश्रम हैं। इनमें स्थित प्रायः सभी प्राणी मोक्ष की कामना नहीं करते हैं; क्योंकि धर्म, अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग में जो प्राणी पूर्णता प्राप्त कर लेता है वह स्वतः ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। अतः त्रिवर्ग ही लोक का परम पुरुषार्थ है। आचार्य वात्स्यायन इसका उद्घोष प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य (काम01/1/5) कहकर करते हैं; जिसका अनुमोदन छान्दोग्योपनिषद् (2/23/2), महाभारत (59/29-30), मत्स्यपुराण (54/3-4) आदि आकर ग्रन्थ भी करते हैं।

त्रिवर्ग एवं मोक्ष; यह चतुर्वर्ग ही भारतीय सभ्यता एवँ संस्कृति की आधारभित्ति है। मानव मात्र की समस्त आकांक्षाएं-अभिलाषाएं इन्हीं में सन्निहित हैं। इन कामनाओं की परितुष्टि हेतु मानव में शरीर, बुद्धि, मन एवं आत्मा; ये चार अंग हैं; जो कि अनन्त कामनाओं एवं आवश्यकताओं के केन्द्र में स्थित हैं। इनमें बुद्धि के लिए धर्म की, शरीर-पोषण के लिए अर्थ की, मनस्तुष्टि के लिए काम की तथा आत्मसंतुष्टि के लिए मोक्ष की आवश्यकता पड़ती है। ये आवश्यकताएँ अनिवार्य एवं अपरिहार्य हैं।

इस प्रकार जीवन-निर्वहन की आकांक्षा ‘अर्थ’ में; स्त्रीपुत्रादि की ‘काम’ में; यश, ज्ञान, न्याय आदि की ‘धर्म’ में एवँ पारलौकिक अभ्युदय की कामना ‘मोक्ष’ में समाविष्ट रहती है। परन्तु इस चतुर्वर्ग में मानवमात्र ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र पर यदि किसी का दुर्धर्ष प्रभाव है तो केवल ”काम“ का ही है। अब प्रश्न यह उठता है कि प्राणिमात्र को अभिभूत करने वाला दुर्धर्ष ‘काम’ क्या है? इसके समाधान में आचार्य वात्स्यायन - 'श्रोतत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानां आत्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यतः प्रवृत्तिः कामः।।' (कामसूत्र 1/2/11) कह कर पंच ज्ञानेन्द्रियों की अपने-अपने विषयों में मनसाधिष्ठित आत्मसंयुक्त प्रवृत्ति को ही ‘काम’ स्वीकार करते हैं। इस प्रकार श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, घ्राण रूप पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आत्मा को मन-बुद्धि के द्वारा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलता अर्थात् सुख का अनुभव होता है, वह प्रवृत्ति ही ‘काम’ है। किन्तु काम का यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएं इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्मपालन में, अर्थसाधन में, स्त्रीपुत्रादि स्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति की रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएं भी काम का ही परिणाम हैं। यह विशेष काम व्यावहारिक रूप से मानव को चुम्बनालिंगनादि सहित शरीर के विशेष अंगस्पर्शजनित आनन्द की फलवती अर्थप्रतीति के रूप में भी ग्राह्य माना गया है।

काम की उत्पत्ति कैसे हुयी? इस प्रश्न पर विचार करते हुए वैदिक ऋषि का कथन है -
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषाः।।
(ऋग्वेद10/129/4)
अर्थात् ‘सृष्ट्युत्पत्ति के समय सर्वप्रथम ‘काम’ अर्थात् सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा उत्पन्न हुयी, जो परब्रह्म के हृदय में सर्वप्रथम सृष्टि का रेतस् अर्थात् बीजरूप कारण विशेष था, जिसे शुद्ध-बुद्ध ज्ञानवान् मनीषी कवियों ने हृदयस्थ परब्रह्म का गम्भीर अनुशीलन कर प्राप्त किया था।’ अतः ऋग्वेद के इस कथन से स्पष्ट है कि सृष्टि के मूलकारण ”काम“ की उत्पत्ति परब्रह्म के हृदय से हुयी और उस परमात्मा ने हृदय में सनातन रूप में अवस्थित कामभावना के कारण ही इच्छा की कि वह बहुत सी प्रजा उत्पन्न करे -
‘सोऽकामयत बहुस्यां प्रजायेत। काममय एवायं पुरुषः।’(तैत्तिरीयोपनिषद् 2/3)
क्योंकि वह जो परमपुरुष है, उसका स्वरूप, उसकी शक्ति एवं प्रकृति सभी कुछ काममय है। किन्तु जब वह अकेला था तो क्या मात्र कामना से ही सृष्टि उत्पन्न हुयी ? नही !! क्योंकि एकाकी पुरुष रमण नहीं कर सकता है। अतः उसने दूसरे की इच्छा की और आलिंगित युगल के परिणाम वाला होकर अपने शरीर को द्विधा विभक्त कर डाला, उससे पति एवं पत्नी अर्थात् स्त्री एवं पुरुष उत्पन्न हुए -
‘स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीयमैच्छत्, स हैतावानास यथा स्त्री पुमॉऽसौ सम्परिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वैधापातयत्ततः पतिश्च पत्नीं चाभवताम्’ (बृहदारण्यकोपनिषद् 1/2/6)
उस परमात्मा का अर्धभाग जो पुरुष रूपी अग्नि है उसमें जब देवगण अन्न होमते हैं तो उस आहुति से वीर्य की उत्पत्ति होती है -
‘तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः संभवति।’(छान्दोग्य0 5/7/2)।
वह वीर्य ही प्राण एवं यश है -
‘प्राणो वै यशो वीर्यम्।’(बृहदारण्यक0 1/2/6)
जो शेष अर्धभाग स्त्रीरूपी अग्नि है उसका उपस्थ ही समिधा है, पुरुष जो उपमन्त्रण करता है वह धूम है, योनि ज्वाला है एवं रतिरूप जो व्यापार है वह अंगार है और उससे जिस सुख की प्राप्ति होती है वही विस्फुलिंग है -
‘योषा वाव गौतमाग्निः तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेंऽगारा अभिनन्दा विस्फुलिंगाः।’(छान्दोग्य0 5/8/1)
बृहदारण्यक श्रुति सृष्टि में प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के आनन्द का एकमात्र अधिष्ठान उपस्थ को स्वीकार करती -
‘सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनम्।’(2/4/11)
उस स्त्री-उपस्थ-रूपी अग्नि में देवगण पुरुषोपमन्त्रण के माध्यम से वीर्य का हवन करते हैं और उस आहुति से गर्भ की उत्पत्ति होती है-
‘तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्नति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति।’(छान्दोग्य0 5/8/2)
पुनः वह जरायु आवृत्त गर्भ नव या दश माह मातृगर्भ में शयन के अनन्तर पुनः उत्पन्न होता है-
‘उल्बावृतो गर्भो दश वा नव वा मासानन्तः शयित्वा यावद्वाथ जायते।’(छान्दोग्य0 5/9/1)
इस प्रकार कामबीज का उद्गमस्थल परमपुरुष का हृदय है एवं उस कामबीज को धारण करने वाली मातृशक्ति उस पुरुष की माया या प्रकृति है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है -
‘सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्त्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।’
(गीता 14/4)
उस परमात्मा का स्वरूप एवं उसकी स्थिति का ज्ञान कराने वाला वेद ही कामशास्त्र का बीज अर्थात् आदिकारण है। जो क्रमशः विकास को प्राप्त होता हुआ एक शास्त्र-विशेष के रूप में परिणत हो गया।

क्रमशः..........

बुधवार, 22 सितंबर 2010

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (1)

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (1)

संस्कृत शास्त्र की प्रारम्भिक कड़ी में प्रस्तुत है “संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा”। प्रवेशिकारूपेण किंचित् आत्मनिवेदन -

क्रान्तदर्शी ऋषियों ने मानव-जीवन में उत्कृष्टत्व की कामना से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप चतुर्विध पुरुषार्थों के रूप में अपने दार्शनिक विचारों को नियोजित एवं विवेचित करते हुए सुख के दो आधार स्वीकार किए - लौकिक एवं आध्यात्मिक। लौकिक सुख में सांसारिक आकर्षण एवं ऐश्वर्य का प्राधान्य होता है, जबकि आध्यात्मिक सुख में त्याग, आत्मसंतुष्टि एवं तप का प्राधान्य होता है। ये दोनों सुख के आधार पुरुषार्थ में ही अन्तर्निहित हैं, जो लौकिक एवं पारलौकिक भेद से द्विधा विभक्त हैं:-
(1) लौकिक पुरुषार्थ:- धर्म, अर्थ एवं काम; जो लोक में त्रिवर्ग के नाम से भी जाने जाते हैं, लौकिक पुरुषार्थ के अन्तर्गत आते हैं।
(2) पारलौकिक पुरुषार्थ:- मोक्ष पारलौकिक पुरुषार्थ के रूप में गृहीत है।
मोक्षरूप पारलौकिक पुरुषार्थ की प्राप्ति अन्योन्याश्रित त्रिवर्ग के परस्पर अविरोधी भाव से सेवन के द्वारा ही हो सकती है। जब तक मानव धर्म, अर्थ एवं काम का सम्यग्रूपेण निर्वाह करते हुए विधि द्वारा निर्दिष्ट अपने सामाजिक दायित्वों को सुव्यवस्थित रूप से संपादित नहीं करता है, तब तक वह कथमपि मोक्षप्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता है। क्योंकि जब तक हृदय की वासनाएं शान्त नहीं होंगी तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। मोक्षप्राप्ति हेतु आवश्यक है कि मानव विद्याग्रहण करने के उपरान्त अपनी पारिवारिक परम्परा एवं धर्मानुसार अर्थोपार्जन करते हुए शास्त्रोचित मर्यादा के पालन पूर्वक गृहस्थ जीवन के आधारभूत ‘काम’ का सुव्यवस्थित रूप से आचरण करते हुए अपने हृदय में निहित सांसारिक वासनाओं को शमित करे। इन त्रिविध लौकिक पुरुषार्थों में से सर्वाधिक कठिन है ‘काम’ रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि।
काम’ सृष्ट्युत्पत्ति का मूलाधार है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति परब्रह्म के हृदय से हुयी है। यह जीवन का अनिवार्य अंग है; प्राणी की सद्गति एवं दुर्गति का सहज कारण भी यही है। क्योंकि इस संसार में कोई भी प्राणी बिना ‘कामभावना’ के किसी भी कार्य को करने में सक्षम नहीं हो सकता है। ‘काम’ इस प्राणिजगत की अनिवार्य एवं अपरिहार्य आवश्यकता है। इसे किसी भी रूप में अनदेखा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ‘काम’ पंचज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मन माध्यम से तत्तत् विषयों में आत्मा को होने वाली अनुकूलनात्मक अनुभूति का परिणाम है। यही ‘काम’ पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति के रूप में प्रवृत्त होकर ‘कामविशेष’ कहा गया है। इस फलवती अर्थप्रतीति को समुचित रूप से सम्पादित करने के लिए, जिससे सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग भी हो सके; तद्विषयक शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है।
चूँकि यहां ‘काम’ पुरुषार्थ विषयक चर्चा हो रही है, अतः काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि शास्त्र एवं शास्त्रज्ञजन ही सामान्य जनों को सुव्यवस्थित सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सफल दाम्पत्य-जीवन व्यतीत करने का विधान बता सकते हैं। किन्तु ‘काम’ एवं तद्विषयक शास्त्र के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ भी हैं। धर्म के व्यापक स्वरूप को न समझने वाले व्यक्ति प्रायः कामशास्त्र की उपयोगिता नहीं मानते हैं, अपने को मोक्षमार्गी मानने वाले लोग इसे अनैतिक एवं अश्लील मानते हुए त्याज्य समझते हैं तथा नीतिज्ञ काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान कोटि में खड़ा कर देते हैं। इस पर विचार करना आवश्यक भी है।
वस्तुतः काम न तो अनैतिक है और न ही अश्लील एवं त्याज्य। काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है। कामसूत्रकार का कथन भी है कि मानवेतर जीवों में भी काम की स्वतः प्रवृत्ति पायी जाती है तथा यह नित्य-अविनाशी है, क्योंकि आत्मा रूपी पदार्थ में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। अतः मानवेतर प्राणियों को संसर्गसुख की प्राप्ति हेतु उनकी स्वाभाविक इच्छा ही पर्याप्त होती है, क्योंकि उनमें स्त्री जाति स्वतंत्र, बन्धनरहित एवं आवरणरहित होती है, ऋतुकाल में ही उनकी सोद्देश्य पूर्ति हो जाती है और यह प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक नहीं होती है। अतः उनका यह सहजधर्म किसी प्रकार के शास्त्ररूपी उपाय की आवश्यकता नहीं रखता है। किन्तु मानव के साथ ऐसी बात नहीं है। क्योंकि परस्पर संसर्ग में स्त्री-पुरुष परस्पर अधीन होते हैं, अतः उन्हें अपनी जैविक इच्छा की पूर्ति एवं पारस्परिक पराधीनता से बचने के लिए शास्त्र रूपी उपाय की आवश्यकता होती है। अत: ऐसे सभी प्रकार के उपाय, जो दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं; का ज्ञान कामसूत्र का भलीभॉति अध्ययन करने से ही संभव है। कामसूत्रकार का कथन भी यही है - ‘शरीरस्थितिहेतुत्वात् आहार सधर्माणो कि कामः। फलभूताश्च धर्मार्थयोः। (कामसूत्र 1/2/37)’ अर्थात् शारीरिक स्थिति को व्यवस्थित बनाने में सहयोगी होने के कारण ‘काम’ भी आहार के ही समान है एवं धर्म-अर्थ फलभूत भी यही है। यही आचार्य वात्स्यायन की स्पष्ट धारणा है। चूँकि सभी प्रकार की प्रवृत्तियॉ पुरुषार्थ से ही सम्पन्न होती हैं, अतः उसके उपाय को जानना आवश्यक है। यदि ‘काम’ को त्याज्य मान लिया जाएगा तो धर्म और अर्थ पूर्णतः निष्प्रयोज्य हो जाएंगे।
अतएव निर्विवादरूपेण कहा जा सकता है कि मनुष्य समाज की अनुकूलता के अनुसार अपने सम्पूर्ण कामसुखों की प्राप्ति संयम एवं मर्यादा का पालन करने के अनन्तर ही कर सकता है; जिसकी शिक्षा उसे कामसूत्र के अध्ययन से ही प्राप्त हो सकती है। क्योंकि जो व्यक्ति कामशास्त्र के तत्व को भलीभाँति जानता है, वह निश्चित रूपेण धर्म, अर्थ एवं काम में परस्पर सामंजस्य स्थापित करते हुए जितेन्द्रिय भाव से सफल दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हुए अपने लोक-व्यवहार की सुव्यवस्थित रूप से रक्षा कर सकता है। कामसूत्रकार ने कहा भी है -
रक्षन्धर्मार्थकामानां स्थितिं स्वां लोकवर्तिनीम्।
अस्य शास्त्रस्य तत्वज्ञो भवत्येव जितेन्द्रियः।।
(कामसूत्र 7/2/58)

यदि संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा विषयक मेरा यह प्रयास सुधीजनों को आत्मिक संतोष प्रदान करते हुए कामशास्त्र एवं कामसूत्र के संबन्ध में प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को निर्मूल करने में सहायक हो सके, यही इस परिश्रम का प्रतिफल एवं कार्य की सफलता होगी।
पुनश्च यदि मेरे इस प्रयास में उल्लिखित किसी पंक्ति अथवा टिप्पणी से किसी को असुविधा हो,तो मार्गदर्शन की अपेक्षा भी है। कालिदास ने कहा भी है - ‘आपरितोषाद् विदुषां न साधु’

क्रमशः ................