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शनिवार, 4 दिसंबर 2010

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (4)

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (4)
गतांक से आगे ....

02. आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु कृत सुखशास्त्र कामसूत्र:

आचार्य नन्दी के पश्चात् कामशास्त्रीय आचार्यपरम्परा में अगले महत्त्वपूर्ण आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु हुए। आचार्य वात्स्यायन के अनुसार श्वेतकेतु ने आचार्य नन्दीप्रोक्त कामसूत्र को संक्षिप्त कर पाँच सौ अध्यायों में सम्पादित किया -
तु पंचभिरध्यायशतैः औद्दालकिः श्वेतकेतुः संचिक्षेप। (काम01/1/9)
आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु के विषय में विभिन्न ग्रन्थों का अनुशीलन करने पर विशिष्ट तथ्य प्राप्त होते हैं। महाभारत में सभापर्व के तृतीय अध्याय के अनुसार आचार्य श्वेतकेतु पंचाल निवासी महर्षि आरुणि पांचाल, जो उद्दलनकर्म के कारण उद्दालक नाम से प्रसिद्ध थे; के पुत्र थे। छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में इन्हें आरुणेय नाम से भी स्मरण करते हुये इन्हें गौतम गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। महाभारत में ही शान्तिपर्व के 220वें अध्याय के अनुसार इनका विवाह शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मणों में प्रवर के रूप में स्मृत ब्रह्मर्षि देवल की परमविदुषी कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था। ये परम योगी, न्यायविशारद्, क्रियाकल्पविद् एवं विविध शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। इनके एवं आचार्य नन्दी के मध्य मिथुनकर्म अर्थात् कामशास्त्र को वाजपेययज्ञ के समान स्वीकारने वाले आरुणि उद्दालक, मौद्गल्य नाक एवं कुमारहारीत आदि मुनि हुए थे -
एतद्ध स्म वै तद् विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान् कुमारहारीत आह......। (बृहदारण्यक06/4/4)
इन लोगों ने सम्भवतः नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र को यथावत् ही रहने दिया। आरुणि उद्दालक के बाद उनके पुत्र श्वेतकेतु ने नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन करते हुए उसको पाँच सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। कामसूत्र की जयमंगला टीका के प्रणेता आचार्य यशोधर औद्दालकि श्वेतकेतु द्वारा सुखशास्त्र कामशास्त्र की रचना पर एक कथन उद्धृत करते हुए कहते हैं कि लोक को मर्यादित करने के उद्देश्य से पिता की आज्ञा होने पर तपोनिष्ठ श्वेतकेतु ने सुखशास्त्र की रचना की -
तथाचोक्तम् -
‘मद्यपानान्निवृत्तिश्च ब्राह्मणानां गुरोः सुतात्।
परस्त्रीभ्यश्च लोकानां ऋषेरौद्दालकादपि।।
ततः पितुरनुज्ञानाद् गम्यागम्यव्यवस्थया।
श्वेतकेतुस्तपोनिष्ठः सुखं शास्त्रं निबद्धवान्।।’
इति। (काम0जय01/1/9)
बृहद्देवता के उल्लेखानुसार श्वेतकेतु, गालव आदि नौ ऋषियों को पौराणिक कवि माना गया है -
नवभ्य इति नैरुक्ताः पुराणाः कवयश्च ये।
मधुकः श्वेतकेतुश्च गालवश्चैव मन्यते।। 1/24।।

आचार्य श्वेतकेतु वैदिकालीन ऋषिपरम्परा के मान्य विद्वान् हैं। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में इनके मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापन प्रकरण में स्त्रीपुरुष के कामसंवेगों एवं स्खलन की पुष्टि हेतु, पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्म प्रकरण में दूतीप्रयोग के विषय में खण्डन हेतु तथा वैशिक अधिकरण के अर्थानर्थानुबन्ध संशयविचार प्रकरण में अर्थानर्थरूप उभयतोयोग कथन हेतु’ प्रस्तुत करते हैं।

03. आचार्य बाभ्रव्य पांचाल कृत कामसूत्र

आचार्य श्वेतकेतु के पश्चात् कामशास्त्र को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया पंचालवासी आचार्य बाभ्रव्य ने। इन्होंने आचार्य श्वेतकेतु द्वारा सम्पादित सुखशास्त्रपरक कामशास्त्र का पुनः संपादन कर उसे साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासंप्रयुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिक; इन सात अधिकरणों में विभाजित कर एक सौ पचास अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। इसका उल्लेख करते हुए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं -
तदेव तु पुनरध्यर्धेनाध्यायशतेन साधारण साम्प्रयोगिक कन्यासंप्रयुक्तक भार्याधिकारिक पारदारिक वैशिक औपनिषदिकैः सप्तभिरधिकरणैः बाभ्रव्यः पांचालः संचिक्षेप। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य बाभ्रव्य के विषय में विविध पौराणिक एवं अन्य ग्रन्थों में जो तथ्य प्राप्त होते हैं, उनमें से मत्स्यपुराण के अनुसार आचार्य बाभ्रव्य पंचालनरेश ब्रह्मदत्त के मंत्री थे। इनका पूर्ण नाम सुबालक बाभ्रव्य था, ये कामशास्त्र प्रणेता एवं सर्वशास्त्रज्ञ थे तथा लोक में पांचाल के नाम से प्रसिद्ध थे-
कामशास्त्र प्रणेता च बाभ्रव्यस्तु सुबालकः।
पांचाल इति लोकेषु विश्रुतः सर्वशास्त्रवित्।।
मत्स्यपुराण 50/24-25।।
हरिवंशपुराण में हरिवंशपर्व के 23-24वें अध्याय के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ऋग्वेदीय बह्वृच शाखानुयायी, धर्म-अर्थ-काम के तत्त्वज्ञ थे; उन्होंने वैदिकों में प्रसिद्ध ऋग्वेद के क्रमपाठ की विधि एवं शिक्षा नामक वेदांग का प्रणयन किया था। उक्त सन्दर्भ ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य ग्रन्थ ऋक्प्रातिशाख्यम् के क्रमहेतु पटल के 65वें सूत्र में भी प्राप्त होता है, जिसके अनुसार आचार्य बाभ्रव्य ऋग्वेद के क्रमपाठ के प्रणेता भी थे -
इति प्र बाभ्रव्य उवाच च क्रमं, क्रम प्रवक्ता प्रथमं शशंस च।।
उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि महाभारत के शान्तिपर्व के 342 वें अध्याय के इस उद्धरण से भी होती है -
पांचालेन क्रमः प्राप्तस्तस्माद् भूतात्सनातनात् ।
बाभ्रव्यगोत्रः स बभौ प्रथमं क्रमपारगः ।।103।।
नारायणाद् वरं लब्ध्वा प्राप्ययोगमनुत्तमम् ।
क्रमं प्रणीय शिक्षां च प्रणयित्वा स गालवः ।।104।।
अर्थात् गालव अपरनाम बाभ्रव्यगोत्रीय पांचाल ने श्रीनारायण की उपासना से प्राप्त वर के प्रभाव से ऋग्वेद के क्रमपाठ का प्रणयन करने के साथ ही शिक्षाग्रन्थ का भी प्रणयन किया। ये ऋग्वेद की बह्वृच शाखा के प्रवर्तक आचार्य भी थे। आचार्य वात्स्यायन भी इन्हें बह्वृच शाखा का प्रवर्तक स्वीकारते हुए कहते हैं कि कुछ लोगों के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ने ही ऋग्वेद की बह्वृच शाखा को 64 भागों में विभक्त किया था। अतः कामशास्त्र का वेद के साथ संबन्ध की पुष्टि एवं कामशास्त्र की महत्ता प्रकट करने के लिए ऋग्वेद की भाँति ही साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी बाभ्रव्य पांचाल ने 64 अंगों वाला बनाया -
पंचाल सम्बन्धाच्च बह्वृचैरेषां पूजार्थं संज्ञा प्रवर्तिता इत्येके।। (कामसूत्र2/2/3)
इस सूत्र को विवेचित करते हुए कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर कहते हैं - ‘पांचाल बाभ्रव्य के संबन्ध से भी इस कामशास्त्र को चतुःषष्टि कहा गया है। महर्षि बाभ्रव्य पांचाल ने ऋग्वेद को 64 भागों में विभक्त किया है और अपने द्वारा संपादित कामसूत्र के साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी इन्होंने आलिंगन, चुम्बन, नखक्षत, दन्तक्षत, संवेशन, सीत्कार, पुरुषायित, एवं औपरिष्टक रूप 64 भागों में विभक्त किया’। सुश्रुतसंहिता के टीकाकार आयुर्वेदाचार्य डल्हण के अनुसार व्याकरणशास्त्र के प्रवक्ता बाभ्रव्य पांचाल गालव भगवान धन्वन्तरि के शिष्य थे। संस्कृत साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ0 537 पर वाचस्पति गैरोला के उल्लेखानुसार आचार्य बाभ्रव्य ने संहिता, ब्राह्मण, क्रमपाठ, कामसूत्र, शिक्षा, निरुक्त, व्याकरण, दैवतग्रन्थ, शालाक्यतंत्र आदि विषयों एवं नामों से विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया था। बृहद्देवता 1/24 के उल्लेखानुसार महर्षि गालव भी श्वेतकेतु की भॉति ही पौराणिक कवि एवं निरुक्तकार थे। गालव अपरनाम वाले आचार्य बाभ्रव्य पांचाल के मतों का उल्लेख ऐतरेय आरण्यक, बृहद्देवता, निरुक्त, अष्टाध्यायी, वायुपुराण, चरकसंहिता, भाषावृत्ति, कामसूत्र आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।
आचार्य बाभ्रव्य पांचाल द्वारा संपादित कामसूत्र तो काल के प्रवाह में विलुप्त हो गया। हॉ ! आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में बाभ्रव्य पांचाल के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मविमर्शप्रकरण में परस्त्री के गम्यागम्यत्व कथन के प्रसंग में; साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापनप्रकरण में रतिजनित आनन्द के विवेचन के प्रसंग में, आलिगंनविचारप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा संप्रयोगकला को आठ भेदों में विभक्त कर पुनः उनके आठ-आठ उपभेद कर कामकला को चतुःषष्टि पांचालिकी कला बताने तथा बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित आलिंगन के आठ भेदों के कथन के प्रसंग में, संवेशनविधिप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित संवेशन के भेदकथन के प्रसंग में; भार्याधिकारिक अधिकरण के ज्येष्ठादिवृत्तप्रकरण के पुनर्भूप्रकरण में तत्कालीन समाज में कई स्त्रियों का पति से असंतुष्ट हो कर अन्य प्रणयी एवं समर्थ पुरुष को पति रूप में स्वीकार करने के लोकव्यवस्था कथन के प्रसंग में; पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्मप्रकरण में परदाराभियोग हेतु दूती प्रयोग के संबन्ध में तथा अन्तःपुरिकावृत्तप्रकरण में राजाओं के अन्तःपुर में रहने वाली स्त्रियों के स्वभावपरीक्षण के संबन्ध में; वैशिक अधिकरण के अर्थादिविचारप्रकरण में वेश्या द्वारा अर्थागम के संदर्भकथन में; औपनिषदिक अधिकरण के नष्टरागप्रत्यानयनप्रकरण में नारी की जैविक संतुष्टि हेतु निर्मित एवं प्रयुक्त होने वाले त्रपुष (रांगा), शीशक आदि के कृत्रिम शिश्न के गुणकथन के संदर्भ में’ नाम सहित प्रस्तुत करते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि कामसूत्र टीकाकार आचार्य यशोधर के काल तक बाभ्रव्य पांचाल प्रणीत ग्रन्थ के कुछ अंश उपलब्ध थे; क्योंकि उन्होंने जयमंगला टीका में बाभ्रव्य पांचाल के मतों को संाप्रयोगिक अधिकरण के प्रथम अध्याय के 34वें सूत्र की टीका में तथा पारदारिक अधिकरण के चतुर्थ अध्याय के 62वें सूत्र की टीका में उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त सप्तदश शतक के आचार्य सामराज दीक्षित के पुत्र कामराज दीक्षित ने कामसूत्र में प्राप्त सामान्य श्लोकों एवं आनुवंश्य श्लोकों को बाभ्रव्यकृत मानते हुए उनका पृथक् बाभ्रव्यकारिका नाम से संग्रह कर उस पर लघुटीका का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ पं0 ढुण्ढिराज शास्त्री द्वारा संपादित होकर कामकुंजलता के अष्टम मंजरी के रूप में चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से सन् 1967 ई0 में प्रकाशित हुआ है।
इस प्रकार कामशास्त्र को बाभ्रव्य ऋणी मानते हुए यह स्पष्टरूपेण कहा जा सकता है कि वर्तमान में कामसूत्र का जो स्वरूप प्राप्त होता है, उसकी क्रमबद्ध आधारशिला आचार्य बाभ्रव्य ने ही रखी। आचार्य बाभ्रव्य वैदिककालीन ऋषिपरम्परा के आचार्य एवं ऐतरेयब्राह्मण काल से पूर्व के हैं।

04. आचार्य दत्तक कृत दत्तकसूत्र:

आचार्य बाभ्रव्य के पश्चात् कामशास्त्रीय ग्रन्थपरम्परा एकांगी होने लगी। कामसूत्र में प्राप्त विवरण के अनुसार पाटलिपुत्र निवासी माथुर ब्राह्मण आचार्य दत्तक ने पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामसूत्र के छठें अधिकरण वैशिक अधिकरण को आधार बनाकर स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की -
तस्य षष्ठं वैशिकमधिकरणं पाटलिपुत्रिकाणां गणिकानां नियोगाद्दत्तकः पृथक्चकार। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य दत्तक एवं तत्कृत दत्तकसूत्र के विषय में यत्किंचित विवरण प्राप्त हैं, वे कुछ कामशास्त्रीय ग्रन्थों, नाट्यकृतियों एवं अभिलेखीय संदर्भ से ही प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त सूत्र की टीका में आचार्य यशोधर इनके विषय में विवरण देते हुए कहते हैं कि ये पाटलिपुत्र निवासी किसी माथुर ब्राह्मण के पुत्र थे। इनके जन्मकाल के कुछ समय पश्चात् ही इनके माता-पिता दिवंगत हो गये थे; एक ब्राह्मणी ने इन्हें अपना दत्तकपुत्र बना लिया जिसके कारण ये दत्तक नाम से प्रसिद्ध हुए। वयःसन्धि तक ये सभी विद्याओं एवं कलाओं में प्रवीण हो गए थे। कलाओं के प्रति आसक्ति होने से आचार्य दत्तक प्रायः पाटलिपुत्र की कलाशास्त्र में प्रवीण गणिकाओं के ही संसर्ग में रहा करते थे, जिसके कारण कामशास्त्र के आचार्य के रूप में इन्हें विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई। बाद में पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामशास्त्र के वैशिक अधिकरण पर इन्होंने स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन किया।
कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य दत्तक का उल्लेख अष्टम शतक के कश्मीरी कवि दामोदरगुप्त प्रणीत ‘कुट्टनीमतम्’ नामक काव्य ग्रन्थ में 77वें एवं 122वें श्लोक में प्राप्त होता है। प्रथम शतक के रूपककार महाकवि शूद्रक स्वकृत ‘पद्मप्राभृतकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकसूत्र’ ग्रन्थ का नामतः उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वेश्या के आंगन में घुसा हुआ भिक्षु उसी प्रकार शोभित नहीं होता है, जिस प्रकार वैशिक अधिकरण पर आधारित ‘दत्तकसूत्र’ नामक ग्रन्थ में पवित्र ओंकार शब्द शोभित नहीं होता है -
वेश्यांगणं प्रविष्टो मोहाभिक्षुर्यदृच्छया वाऽपि।
न भ्राजते प्रयुक्तो दत्तकसूत्रेष्विवोंकार।। 24।।
आचार्य दत्तक प्रणीत तीन सूत्रों के स्पष्ट विवरण प्राप्त होते हैं। जिनमें से प्रथम उल्लेख गुप्तकालीन कवि ईश्वरदत्त प्रणीत ‘धूर्तविटसंवाद’ नामक भाणरूपक में ‘आपुमान शब्दकामः इति दात्तकीयाः’ कहकर, द्वितीय उल्लेख सप्तम शतक के कवि आर्य श्यामलिक प्रणीत ‘पादताडितकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकेनाप्युक्तम्- कामोऽर्थनाशः पुंसाम्’ कहकर तथा तृतीय उल्लेख आचार्य यशोधर प्रणीत कामसूत्र के सूत्र संख्या 6/3/20 की टीका में ‘भाण्डसम्प्लवे विशिष्टग्रहणम्’ इति दत्तकसूत्रस्पष्टार्थम्।’ कहकर प्राप्त होता है।
‘दत्तकसूत्र’ पर दक्षिणभारत के गंगवंश के शासक श्रीमन्माधवमहाधिराज ने टीका का प्रणयन किया था। ‘केरेगालूर’ में प्राप्त गंगवंशी नरेश के दानपत्र के अनुसार गंगवंशी राजा दुर्विनीत ने बृहत्कथा को देवभारती के स्वरूप में उपनिबद्ध किया था एवं उसी के पूर्वज श्रीमन्माधवमहाधिराज ने ‘दत्तकसूत्र’ पर वृत्ति लिखी थी -
स्वस्ति श्री जितं। भगवता गतधनगगनाभेन पद्मनाभेन। श्रीमज्जाह्नवेयकुलामलव्योमावभासनभास्करः सुखंगैकप्रहारखण्डित महाशिलास्तम्भबलपराक्रमः काण्वायन सगोत्र श्रीमत्कोंगुणिमहाधिराजो भुवि विभुतमोऽभवत्। तत्पुत्रो नीतिशास्त्रकुशलो दत्तकसूत्रस्यवृत्तेः प्रणेता श्रीमन्माधवमहाधिराजः।
दत्तकसूत्र के वृत्तिकार श्रीमन्माधवमहाधिराज काण्वायन गोत्रीय गंगवंशीय ब्राह्मण नरेश थे। जिनका समय इतिहासज्ञों द्वारा पंचम शतक पूर्वार्द्ध स्वीकृत है। A Triennial Catalogue of manuscripts collected for the Government Orintal Manuscripts Library, Madras में संख्या 3220(b) प्राप्त विवरण के अनुसार दत्तकसूत्र पर एक अज्ञात विद्वान् द्वारा रचित वृत्ति अपूर्ण रूप में गवर्नमेन्ट ओरिएण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, चेन्नई में सुरक्षित है।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य दत्तक का यह सूत्रग्रन्थ संभवतः दशम शतक तक पूर्णतया सुरक्षित रहा; कालान्तर में सुरक्षा के अभाव के कारण यह ग्रन्थ लुप्तप्राय हो गया। आचार्य वात्स्यायन के कथनानुसार कामसूत्र के वैशिक अधिकरण का संपूर्ण आधार प्रायः दत्तकसूत्र से ही ग्रहण किया गया है। मान्यतानुसार इस ग्रन्थ में तत्कालीन सामाजिक विधान को दृष्टिगत रखते हुए गणिकाजनों के लाभहानि के बारे में विस्तृत निर्देश सहित वेश्याजनोचित चतुःषष्टि पांचालिकी कामकलाओं का संपूर्ण विवरण उपनिबद्ध था। इनका समय ईशवीय पूर्व में माना जा सकता है।

क्रमशः..........

2 टिप्‍पणियां:

  1. मैं संस्कृत साहित्य पर ऐसे ही किसी ब्लाग की तलाश में था। आपने अच्छा रिसर्च वर्क किया है मुझे लगता है कि इससे संस्कृत के पाठकों और इस देव वाणी का महत्व समझने वाले लोगों का काफी हित होगा।

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