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रविवार, 27 नवंबर 2011

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (6)


संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (6)
गतांक से आगे ....

(ख) वात्स्यायनीय कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ:-
           
(12) वात्स्यायन कृत कामसूत्र:

            आचार्य वात्स्यायन भास, कालिदास आदि की भॉति अपने विषय में सर्वथा मौन हैं। कामसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य यशोधर एवं वासवदत्ताकार सुबन्धु के उल्लेखानुसार इनका वास्तविक नाम मल्लनाग था। वात्स्यायन इनका गोत्रवाचक नाम था। आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन ने लोकजीवन को सरल, सफल, सुचारु एवं मर्यादित बनाने के लिए ब्रह्मचर्य पूर्वक एकाग्रचित्त होकर इस गम्भीर कृति का निर्माण किया। जिसका उल्लेख वे स्वयं करते हैं -
            तदेतद् ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना।
            विहितं लोकयात्रार्थं न रागार्थोऽस्य संविधिः।। कामसूत्र 7/2/57।।
            कामसूत्रकार आचार्य वात्स्यायन के स्थितिकाल के विषय में प्रामाणिक सामग्री का नितान्त अभाव है। क्योंकि आचार्य वात्स्यायन तो अपने विषय में सर्वथा मौन हैं ही, उनके समकालीन किसी अन्य आचार्य ने भी उनके विषय में कुछ नहीं लिखा है। अतः वात्स्यायन के समय के विषय में जो कुछ भी मत प्रस्तुत हुए हैं वे यत्किंचित अन्तर्बाह्यसाक्ष्यजनित अनुमान पर ही आधारित हैं। परवर्ती ग्रन्थों में भी उनके जीवन के विषय में कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। हॉ ! विविध कोषकारों के कथन की पुष्टि करती हुयी यह किंवदन्ती प्रचलित है कि - वात्स्यायन अर्थशास्त्र के प्रणेता आचार्य कौटिल्य का ही अपर नाम है। कौटिल्य ने ही अपने गोत्रवाचक छद्मनाम से अर्थशास्त्र की ही रचनापद्धति पर कामसूत्र का भी प्रणयन किया था
            किन्तु अन्तःसाक्ष्यों एवं बाह्यसाक्ष्यों पर तर्कपूर्ण ढंग से विचार करने पर यह किंवदन्ती एवं कोषकारों का प्रामाण्य स्वतः निरस्त हो जाता है। कामसूत्र जैसी महनीय कृति का निर्माण शान्ति एवं समृद्ध वातावरण में ही हो सकती है और भारतीय इतिहास में ई.पू. प्रथम शतक से प्रथम शतक ईशवीय तक का सातवाहन शासनकाल तथा गुप्तकाल यही दो समय विशेष सुख एवं समृद्धि का रहा है। अन्तःसाक्ष्यों एवं बाह्यसाक्ष्यों पर विमर्श करने पर आचार्य वात्स्यायन इन दोनों कालों में से सातवाहन शासनकाल के सर्वाधिक निकट प्रतीत होते हैं। 
            आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के साम्प्रयोगिक अधिकरण के प्रहणनसीत्कार प्रकरण में सातवाहन नरेश कुन्तलशातकर्णि का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि - 
          ‘कर्तर्या कुन्तलःशातकर्णिः शातवाहनो महादेवीं मलयवतीं जघान’(कामसूत्र2/7/29) 
      कामसूत्र के प्रामाणिक टीकाकार आचार्य यशोधर कुन्तलशब्द से कुन्तल जनपद अर्थ का ग्रहण करते हैं। किन्तु प्रो0 गुर्ती वेंकटराव ने अपने प्राक्-सातवाहन काल और सातवाहन कालनामक बृहद् शोध निबन्ध में ऐतिहासिक अनुशीलन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि कुन्तल शातकर्णि आन्ध्रभृत्य सातवाहन वंश का तेरहवां शासक था, जिसका समय ई.पू. 52 से ई.पू. 44 तक रहा। इसने मात्र आठ वर्ष तक ही शासन किया था। अतः आचार्य वात्स्यायन ई.पू. प्रथम शतक से पूर्व के नहीं माने जा सकते हैं; यह कामसूत्रकार की पूर्व सीमा है। महाकवि सुबन्धु ने वासवदत्तानामक अपने कथापरक उपन्यास में कामसूत्र विन्यास इव मल्लनाग घटित कान्तार सामोदः कहकर वात्स्यायन के मूल नाम का उद्घाटन किया, जिसका समर्थन बाद में आचार्य यशोधर ने भी किया। इनसे भी पूर्ववर्ती संस्कृत कथा साहित्य के अनुपम ग्रन्थ पंचतंत्रके प्रणेता पं. विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र में ततो धर्मशास्त्राणि मन्वादीनि, अर्थशास्त्राणि चाणक्यादीनि, कामशास्त्राणि वात्स्यायनादीनि कहते हुए वात्स्यायन का ग्रन्थ सहित स्मरण किया है। इनमें से महाकवि सुबन्धु षष्ठ शतक में तथा पं0 विष्णुशर्मा तृतीय से चतुर्थ शतक के मध्य में हुए थे। यह कामसूत्रकार की अपर सीमा है। इस प्रकार उपर्युक्त विवरणों के आलोक में आचार्य वात्स्यायन का समय ईशा पूर्व प्रथम शतक से चतुर्थ शतक ईशवीय के मध्य स्थिर है। आचार्य वात्स्यायन के काल के साथ-साथ उनके निवासस्थान के विषय में भी विवाद है। डॉ..बी. कीथ, डॉ. सूर्यकान्त, नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य आदि आलोचक इन्हें पश्चिमोत्तर भारत का निवासी मानते हैं। पं. देवदत्त शास्त्री इन्हें उत्तर भारत के वत्स देश का निवासी मानते हैं।
            हमारे दृष्टिकोण से उपर्युक्त स्थापनाएं एकांगी हैं। आचार्य वात्स्यायन वत्य/वात्स्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रत्येक गोत्र किसी न किसी वेद की शाखा से संबन्धित होता है एवं उस शाखा के अपने धर्मविधान, गृह्यविधान, यज्ञविधान आदि होते हैं जो सूत्र कहे जाते हैं। कामसूत्र एवं कल्पसूत्र साहित्य पर तुलनात्मक दृष्टिपात करने पर कामसूत्र एवं आपस्तम्बगृह्यसूत्र के कतिपय सूत्रों में स्पष्ट समानताएं दिखायी पड़ती हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक विवेचनों एवं कतिपय नवीन प्रमाणों का आधार ग्रहण करते हुए मैंने आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन का समय ईशा पूर्व प्रथम शतक के उत्तरार्ध से प्रथम शतक ईशवीय के पूर्वार्ध के मध्य सातवाहनकाल में स्वीकार करते हुए उन्हें आन्ध्रदेशीय आपस्तम्ब शाखा एवं सूत्र से संबन्धित वत्य/वात्स्य गोत्रीय ब्राह्मण माना है। इनके काल एवं निवासस्थान के संबन्ध में विस्तृत विवरण हमारे समालोचनात्मक ग्रन्थ कामसूत्र का सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन में दिए गए हैं, जो कि चैखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है
            ध्यातव्य है कि यह चराचर जगत् दो रूपों में विभक्त है - जड़ एवं चेतन, इनमें भी चेतन जगत् अज्ञ एवं विज्ञ रूप से दो भागों में विभाजित है। पशु, पक्षी, कीटादि अज्ञ होने के कारण रतिसुख के लिए स्वतंत्र होते हैं, उनकी स्वाभाविक कामेक्षा ही उनके रतिसुख के लिए पर्याप्त होती है। किन्तु मानव विज्ञ होने के कारण रतिसुख के लिए परतंत्र होते हैं। क्योंकि उनमें संकोच, लज्जा, लोकभय आदि की भावनाएं व्याप्त रहती हैं, जो अज्ञों में नहीं होती हैं। मानव में परस्पर रतिभाव उत्पन्न करने और विषयसुख की अनुभूति करने के लिए यह आवश्यक है कि वे रतिभाव के संबन्ध में विशेष ज्ञान प्राप्त करे, जिससे वह लोक को संतुष्ट एवं मर्यादित रख सके। अतः मानव के लिए रतिभाव एवं कामसुख का भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो उपाय-विशेष कहे गए हैं, वे कामसूत्र के द्वारा ही जाने जा सकते हैं। यह कथन स्वयं आचार्य वात्स्यायन का है - 
         सा च उपाय प्रतिपत्ति: कामसूत्रात्’(कामसूत्र 1/2/19)
       आचार्य वात्स्यायन द्वारा विरचित कामसूत्र का प्रतिपाद्य विषय है काम। काम सृष्टि की एक अत्यन्त प्रबलतम शक्ति है। इस चराचर जगत् में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो काम के प्रभाव से अभिभूत न हुआ हो। जब आचार्य वात्स्यायन काम के सार्वभौमिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा एवं नासिका रूप पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में आत्मा को मन-बुद्धि के माध्यम से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलनात्मक आनन्द रूप सुख का अनुभव कराती हैं, वह अनुकूलनात्मक प्रवृत्ति ही कामकही जाती हैकाम की यह परिभाषा में धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग को पूर्णतया अपने में समाहित कर लेती है। किन्तु काम यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएँ इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्म पालन में, अर्थ साधन में, पुत्रस्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएँ भी काम ही हैं। अतः कामसूत्रकार पुनः काम के लौकिक स्वरूप को परिभाषित करते हैं
           ‘स्पर्शविशेष विषयात्त्वस्याभिमानिकसुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात् कामः’ (कामसूत्र 1/2/12)
       यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति को कामविशेषकहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार दम्पत्ति को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अवर्णनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इस फलवती अर्थप्रतीति को मानव किस प्रकार सम्पादित करे, जिससे उसकी सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं वह नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग करते हुए अपने गृहस्थ जीवन सुखी भी बना सके ? इसके लिए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं कि काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त किया जाना चाहिए। क्योंकि शास्त्र एवं श्रेष्ठ पुरुष ही सामान्य जनों को सुव्यवस्थित सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सफल दाम्पत्यजीवन जीने की कला शिक्षा दे सकते हैं।
       आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन ने तत्कालीन सुखी समाज में सामाजिकों के यौनजीवन को सुव्यवस्थित एवं मर्यादित बनाए रखने के उद्देश्य से लुप्तप्राय कामसूत्र जैसे महनीय ग्रन्थ का पुनर्प्रणयन किया। कामसूत्र का प्रकरणानुसार औचित्यपूर्ण विवेचन प्रस्तुत है।

कामसूत्र:-  

       आचार्य वात्स्यायन ने बाभ्रव्य पांचाल कृत कामसूत्र एवं चाणक्य कृत अर्थशास्त्र को आधार बनाकर कामसूत्र को 1250 श्लोकों के प्रमाण में सात अधिकरणों, 36 अध्यायों एवं 64 प्रकरणों में विभक्त किया है। प्रथम अधिकरण का नाम साधारण अधिकरण है। इस अधिकरण के प्रत्येक अध्याय में एक-एक प्रकरण हैं, इस प्रकार इस अधिकरण में कुल पांच अध्याय एवं पांच प्रकरण हैं।
            प्रथम अध्याय में शास्त्रसंग्रह नामक प्रकरण है। आचार्य वात्स्यायन इस प्रकरण के द्वारा ग्रन्थ का प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण के रूप में धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग पुरुषार्थ को नमस्कार करते हैं; क्योंकि उन्होंने इस शास्त्र के माध्यम से धर्म एवं अर्थ के द्वारा अनुमोदित एवं अनुशासित काम के सेवन का उपदेश किया है। पुनः धर्म, अर्थ एवं काम संबन्धी ग्रन्थों का प्रणयन कर समाज की मनोवृत्तियों को नियमित एवं मर्यादित करने वाले उन-उन शास्त्रों के तत्त्वज्ञ आचार्यों का भी नमन किया है।
            इस प्रकार मंगलाचरण करते हुए आचार्य वात्स्यायन कामशास्त्र की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए इसकी पूर्व की परम्परा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्मा ने प्रजा की सृष्टि करने के उपरान्त प्रजा की सामाजिक स्थिति एवं मर्यादा का नियमन करने के उद्देश्य से धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के साधनभूत एक लाख श्लोकों में कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य का बोध कराने वाले मानव-संविधान-परक शास्त्र का प्रवचन किया। कालान्तर में प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित उस संविधानपरक शास्त्र के धर्मशास्त्र विषयक अंश को स्वायम्भुव मनु ने पृथक् रूप से मानव धर्मशास्त्र के रूप में संपादित कर स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। इसी आधार पर आचार्य बृहस्पति ने उस संविधानपरक शास्त्र के अर्थशास्त्र विषयक अंश का सम्यक् अध्ययन करने के पश्चात् पृथक् रूप से बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र के रूप में संपादित कर स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। इस परम्परा का अनुसरण करते हुए भगवान शिव के अनुगामी शिलादि ऋषि के पुत्र नन्दी या नन्दिकेश्वर ने उस संविधानपरक शास्त्र के कामशास्त्र विषयक अंश को पृथक् कर एक हजार अध्यायों में कामसूत्र के रूप में संपादित कर विशद् एवं स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। चूँकि नन्दी द्वारा संपादित कामसूत्र अत्यन्त विशद् था, अतः गौतम गोत्रीय उद्दालक ऋषि के पुत्र महर्षि श्वेतकेतु ने उस कामसूत्र का पुनः संपादन कर पांच सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। किन्तु बाद के समय में यह कामसूत्र भी जन सामान्य के लिए कठिन हो गया। अतः पांचाल देश के निवासी बभ्रु ऋषि के पुत्र बाभ्रव्य पांचाल ने श्वेतकेतु के पांच सौ अध्यायों वाले कामसूत्र को एक सौ पचास अध्यायों में संक्षिप्त कर साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासम्प्रयुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिकइन सात अधिकरणों में विभक्त कर दिया।
       इनके बाद के समय में आचार्य दत्तक ने पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामसूत्र के छठवें अधिकरण वैशिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर पृथक् रूप से दत्तकसूत्र नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। जिस प्रकार आचार्य दत्तक ने वैशिक अधिकरण का स्वतंत्र रूप से प्रणयन किया, उसी प्रकार विषय-विशेष का व्यवस्थित एवं विस्तृत विवेचन करने के उद्देश्य से आचार्य चारायण ने साधारण अधिकरण, आचार्य सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक अधिकरण, आचार्य घोटकमुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण, आचार्य गोनर्दीय ने भार्याधिकारिक अधिकरण, आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदारिक अधिकरण, एवं आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक अधिकरण का स्वतंत्र रूप से विस्तृत विवेचन किया। किन्तु भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा बाभ्रव्य पांचाल विरचित कामसूत्र के अधिकरणों को भिन्न-भिन्न खण्डों में लिखे जाने के वह महाग्रन्थ बिखर सा गया।
      चूंकि दत्तक आदि आचार्यों ने पृथक्-पृथक् अधिकरणों का आश्रय ग्रहण कर अपने-अपने ग्रन्थों की रचना की थी, अतः ये ग्रन्थ कामसूत्र के अंशमात्र होने के कारण उसके प्रयोजन को पूरा करने में असमर्थ थे। फिर आचार्य बाभ्रव्य द्वारा रचित कामसूत्र विशाल होने के कारण तत्कालीन जन-सामान्य के लिए कठिन हो गया था। इन सभी परिस्थितियों पर भलीभॉति विचार करके आचार्य वात्स्यायन ने बाभ्रव्य विरचित कामसूत्र को समसामयिक जनसमुदाय की बुद्धि के अनुकूल सरलता पूर्वक समझे जाने योग्य पूर्ण एवं संक्षिप्त इस कामसूत्र की रचना की। वात्स्यायन द्वारा रचित इस कामसूत्र के प्रकरण, अध्याय, अधिकरण आदि इस प्रकार हैं।
      इसके प्रथम अधिकरण का नाम साधारण अधिकरण है, इसमें पांच अध्याय एवं पांच ही प्रकरण हैं। द्वितीय अधिकरण का नाम साम्प्रयोगिक अधिकरण है, इसमें दश अध्याय एवं सत्रह प्रकरण हैं। तृतीय अधिकरण का नाम कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण है, इसमें पांच अध्याय एवं नौ प्रकरण हैं। चतुर्थ अधिकरण का नाम भार्याधिकारिक अधिकरण है, इसमें दो अध्याय एवं आठ प्रकरण हैं। पंचम अधिकरण का नाम पारदारिक अधिकरण है, इसमें छः अध्याय एवं दश प्रकरण हैं। षष्ठ अधिकरण का नाम वैशिक अधिकरण है, इसमें छः अध्याय एवं बारह प्रकरण हैं। सप्तम अधिकरण का नाम औपनिषदिक अधिकरण है, इसमें दो अध्याय एवं छः प्रकरण हैं। इस प्रकार एक हजार दो सौ पचास श्लोक के परिणाम वाले इस कामसूत्रमें कुल छब्बीस अध्याय, चौंसठ प्रकरण एवं सात अधिकरण हैं। 

क्रमशः..........

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