संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (7)
गतांक से आगे ....
द्वितीय अध्याय में त्रिवर्गप्रतिपत्ति नामक प्रकरण है। भारतीय विचारधारा के अनुसार शास्त्र का परिणाम है त्रिवर्ग की प्रतिपत्ति अर्थात् धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग की प्राप्ति। शास्त्र के लिए त्रिवर्ग की प्राप्ति के साधन क्या हैं, उसके उपाय की खोज करना आवश्यक है। अतः शास्त्रसंग्रह के पश्चात् आचार्य वात्स्यायन इस प्रकरण को प्रस्तुत करते हैं। त्रिवर्ग की प्रतिपत्ति के तीन भेद हैं - अनुष्ठान, अवबोध एवं संप्रतिपत्ति। इनमें से त्रिवर्ग की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले उपाय को अनुष्ठान कहा जाता है, धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझने की प्रक्रिया को अवबोध कहते हैं तथा त्रिवर्ग पर अधिकार कर लेने को संप्रतिपत्ति कहा गया है। इन तीनों में अनुष्ठान का ही प्रामुख्य होता है। अतएव आचार्य वात्स्यायन सबसे पहले अनुष्ठान पर विचार करते हुए कहते हैं कि ”शतंजीवी मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन को आश्रमों में विभाजित कर धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग का इस प्रकार सेवन करे कि वे तीनों एक-दूसरे से परस्पर संबद्ध भी रहें एवं परस्पर अनिष्टकारी भी न हों।“ अपने इस कथन के द्वारा आचार्य वात्स्यायन ने भारतीय मनीषा की चिन्तन प्रणाली का सार ही यहॉं प्रस्तुत कर दिया है।
भारतीय जीवन-पद्धति में मानव की आयु सौ वर्ष की मानी गयी है। शतवर्षीय जीवन की कामना लिए वैदिक ऋषि पूर्व दिशा में उदित भगवान सूर्य से प्रार्थना करता हुआ कहता है –
‘पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्ब्रवाम शरदः शतं, अदीनाः स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्’।
इसलिए कल्याणमय जीवनयापन की कामना करने वाले मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन को विभिन्न आश्रमों में विभाजित कर अन्योन्यानुबद्ध एवं परस्पर अनुपघातक त्रिवर्ग का सेवन करे। यहॉं अन्योन्यानुबद्ध एवं अनुपघातक शब्द का आशय है कि त्रिवर्ग के उपभोग में धर्म, अर्थ एवं काम में से किसी एक पुरुषार्थ की ही प्रधानता होगी किन्तु अन्य पुरुषार्थ भी गौण रूप से सम्मिलित हों और उनमें किसी भी प्रकार का विरोध हो ही नहीं। यदि जीवन में धर्म की प्रधानता हो तो अर्थ एवं काम सहायक हों, विरोधी नहीं; अर्थ की प्रधानता हो तो धर्म एवं काम सहायक हों, विरोधी नहीं तथा काम की प्रधानता हो तो धर्म एवं अर्थ सहायक हों, विरोधी नहीं।
आचार्य वात्स्यायन सौ वर्ष की अवस्था का क्रमानुसार विभाजन करते हुए कहते हैं कि ‘बाल्यावस्था में विद्योपार्जन आदि बाल्यकाल के अनुकूल कार्यों का सेवन किया जाना चाहिए।’ अवस्था के विभाजन पर शास्त्रों में कहा गया है कि -
‘आ षोडषात् भवेद् बालो यावत् क्षीरान्नवर्तनः।
मध्यमः सप्ततिं यावत् परतो वृद्ध उच्यते।।’
अर्थात् सोलह वर्ष की अवस्था तक मानव बालक कहा जाता है, सत्तर वर्ष की अवस्था तक मध्यम तथा इसके बाद वृद्ध कहा जाता है। इस प्रकार मानव को अपने बाल्यकाल में विद्या की साधना करते हुए शारीरिक एवं मानसिक विकास, लोक-व्यवहार आदि का परिज्ञान कर लेना चाहिए; क्योंकि जीवन के मध्यमकाल को सुखी एवं मर्यादित बनाने में बाल्यकाल का ही योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। बाल्यकाल के बाद की अवस्था अर्थात् यौवनकाल में काम का सेवन किया जाना चाहिए तथा वृद्धावस्था में धर्म एवं मोक्ष का सेवन किया जाना चाहिए।
चूंकि जीवन अनित्य है अतः त्रिवर्ग का सेवन समय एवं आवश्यकतानुसार कभी भी किया जा सकता है। क्योंकि मानव की कामना सौ वर्ष की आयु प्राप्त करने की अवश्य है किन्तु मृत्यु पर उसका नियन्त्रण किसी भी रूप में नहीं है। अतः जीवनकाल नियत अवस्था वाला नहीं होने के कारण जिस समय जो भी सम्भव हो, सामाजिक मर्यादा एवं लोकाचार का अनुसरण करते हुए त्रिवर्ग का इच्छानुसार सेवन कर लेना चाहिए। हॉ ! त्रिवर्ग के सेवन में परस्पर संबद्धता एवं इष्टकारी भाव का होना आवश्यक है।
इस प्रकार मानव का बाल्यकाल में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए जीवन को सार्थक एवं उपयोगी बनाने के लिए विविध प्रकार की आध्यात्मिक एवं लोकोपकारक विद्याओं का उपार्जन करना आवश्यक एवं अनिवार्य है। विद्योपार्जन के पश्चात् ब्रह्मचारी अर्थोपार्जन में प्रवृत्त होते हुए उपयुक्त कन्या के साथ धार्मिक विधि से विवाह कर उसके उद्देश्य की पूर्ति करता था। शास्त्रों में विवाह के तीन उद्देश्य माने गए हैं - यज्ञादि समस्त धार्मिक कर्मों का सम्पादन करना, कामोपभोग के द्वारा शरीर को जैविक अनुकूलता प्रदान करना तथा संतानोत्पत्ति कर सृष्टि का सातत्य बनाते हुए पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करना।
त्रिवर्ग का उपाय बता देने मात्र से ही उसका अनुष्ठान संभव नहीं है। अतः आचार्य वात्स्यायन धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझने की प्रक्रिया अवबोध पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए सर्वप्रथम लोक की व्यवस्था का नियमन करने वाले धर्म के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहते हैं कि ‘अलौकिक एवं परोक्ष फल देने वाले यज्ञ आदि कृत्यों में शीघ्र प्रवृत्त न होने वाले मानव का शास्त्र के आदेश से प्रवृत्त होना तथा लोक में प्रत्यक्ष फल से युक्त होने के कारण मांसादि अभक्ष्य भक्षण रूप कार्यों में प्रवृत्त मनुष्य का शास्त्र के आदेश से निवृत्त होना ही ”धर्म“ है। क्योंकि विद्वानों के लिए वेदादि शास्त्र प्रमाण हैं तथा जन-सामान्य के लिए धर्मज्ञ विद्वान्।
जीवन में धर्माचरण की आवश्यकता पर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए कामसूत्रकार कहते हैं कि - चूंकि धर्म का व्यवस्थित रूप से नियमन करने वाले वेदादि शास्त्र ईश्वरप्रोक्त एवं मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा दृष्ट हैं, अतएव उनके वचनों पर किसी भी प्रकार से सन्देह नहीं किया जा सकता है। उन शास्त्रों के द्वारा प्रवर्तित शान्ति-पुष्टिधायक कर्मो एवं अभिचार कर्मों के फलों का अनुभव भी इसी लोक में होता है। नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, तारागण एवं ग्रहादि की प्रवृत्ति भी लोकहित के लिए ही धर्मवाद सम्मत है। वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था तथा उनके पालन में किए जाने वाले आचार-विचार परक सभी प्रकार के कर्मों का प्रतिपादन धर्म में ही किया गया है। इसलिए जिस प्रकार जीवनयापन के लिए हाथ में आए हुए बीज को भविष्य में उत्पन्न होने वाले अन्न की आशा से खेत में त्याग देना मूर्खता नहीं है, उसी प्रकार आध्यात्मिक एवं सामाजिक उन्नति की आशा करते हुए धर्म का आचरण अवश्य ही किया जाना चाहिए। इस प्रकार प्रवृत्ति एवं निवृत्ति स्वरूप धर्म का निर्देश करते हुए कामसूत्रकार धर्म की शिक्षा वेदादि शास्त्रों एवं धर्म के तत्त्व को आत्मसात करने वाले धर्मज्ञ पुरुषों से ग्रहण करने का परामर्श देते हैं। यहॉं आचार्य वात्स्यायन वेद-शास्त्रादि द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुकूल धर्माचरण की आवश्यकता का तर्कपूर्ण ढंग से समर्थन करते हैं। उनकी दृष्टि में धर्ममय-जीवन मानव की अपरिहार्य आवश्यकता है।
इसके पश्चात् अर्थ पर विचार प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि ‘अर्थ’ मानव के आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक उन्नति में उपयोग के आधार पर परम सहायक है। आचार्य वात्स्यायन इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘विद्या, भूमि, हिरण्य, पशु, धान्य, बर्तन आदि गृहोपयोगी वस्तु, वस्त्राभूषण एवं सन्मित्र आदि को धर्मपूर्वक प्राप्त करना तथा प्राप्त हुए ऐश्वर्य की वृद्धि करना ही ”अर्थ“ है। चूंकि अर्थोपार्जन चारों वर्णों के लिए आवश्यक है, अतएव अर्थशास्त्र के अर्थविधिक अधिकरण अध्यक्षप्रचार तथा कृषि, व्यापारी आदि अर्थतत्त्वज्ञों का आश्रय ग्रहण करते हुए आर्थिक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार धर्म से बुद्धि सम्बन्धित है उसी प्रकार जीवनयापन हेतु करणीय समस्त व्यापार अर्थ से सम्बन्धित है। पुनः कर्म के प्राधान्य पर अपना अभिमत देते हुए कहते हैं कि सम्पूर्ण कार्यप्रवृत्तियाँ पुरुषार्थ-पराक्रम से ही सम्पन्न होती हैं, अतः अर्थसाधन के उपाय का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि अवश्यंभावी कार्यों की सिद्धि भी बिना उपाय अथवा पराक्रम के नहीं होती है एवं अकर्मण्य पुरुष का कभी कल्याण नहीं होता है। इस प्रकार आचार्य वात्स्यायन की दृष्टि में मानव को अपना जीवन स्तर व्यवस्थित रखने के लिए धर्म पूर्वक अर्थोपार्जन के लिए प्रयत्नशील एवं उद्योगी होना चाहिए। उसे जीवन में आने वाले संकटों एवं संघर्षों को सहन करने की शक्ति विकसित करनी चाहिए।
धर्म एवं अर्थ का निरूपण करने के पश्चात् काम के स्वरूप पर विचार प्रस्तुत करते हैं। यह काम रूप पुरुषार्थ ही ब्रह्म के हृदय में ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ रूपी कामना-विशेष के रूप में उत्पन्न होकर सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य बनाये हुए है। आचार्य वात्स्यायन सृष्टि के अनुकूलनात्मक कार्य-व्यापार को काम का ही परिणाम मानते हुए कहते हैं कि श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, घ्राण रूप पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आत्मा को मन-बुद्धि के द्वारा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलता अर्थात् सुख का अनुभव होता है, वह प्रवृत्ति ही काम है। किन्तु काम यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएँ इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्म पालन में, अर्थ साधन में, पुत्रस्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति की रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएँ भी काम ही हैं। अतएव कामसूत्रकार पुनः काम के लौकिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अवर्णनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अवर्णनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इस फलवती अर्थप्रतीति को मानव किस प्रकार सम्पादित करे, जिससे उसकी सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं वह नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग करते हुए अपने गृहस्थ जीवन को सुखी भी बना सके ? इसके लिए आचार्य वात्स्यायन काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त करने का परामर्श देते हैं। इस प्रकार कामसूत्र के अध्ययन से तथा कामशास्त्र के ज्ञाता नागरिकों के संसर्ग से काम की फलवती अर्थसिद्धि हेतु ज्ञान प्राप्त करके लोकजीवन की जैविक आवश्यकताओं की सम्यक्तया पूर्ति करनी चाहिए, जिससे सामाजिक अपवाद न हो एवं धार्मिक अनुकूलता भी बनी रहे।
ध्यातव्य है कि आचार्य वात्स्यायन का उद्देश्य सृष्टि में सर्वाधिक दुर्धर्ष प्रभाव रखने वाले ‘काम’ का व्यवस्थित विवेचन है। अतः इसके स्वरूप को स्पष्ट करने के साथ ही काम के सहायक ‘अर्थ’ एवं नियन्त्रक ‘धर्म’ के स्वरूप को भी स्पष्ट करते हैं तथा अन्त में काम की अपेक्षा अर्थ एवं अर्थ की अपेक्षा धर्म के श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन भी करते हैं -
एषां समवाये पूर्वः पूर्वो गरीयान् ।।
किन्तु यह सभी के लिए प्रमाण नहीं है। कारण कि राजा के लिए धर्म एवं काम की अपेक्षा अर्थ अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि सामाजिक वर्णाश्रम मर्यादा का सुव्यवस्थित परिपालन राजा का कर्त्तव्य है, उसके लिए प्रभुशक्ति की आवश्यकता होती है और प्रभुत्व कोश, दण्ड एवं बल पर ही निर्भर है और ये सभी अर्थशक्ति पर निर्भर हैं; अतएव शासक वर्ग के लिए अर्थ अधिक श्रेयस्कर है। इसी प्रकार वेश्या की जीविका भी अर्थशक्ति पर ही निर्भर है। यही कारण है कि वह धर्म की दृष्टि से कामातुर ब्राह्मण एवं प्रेम की दृष्टि अपने प्रियतम नागरिक को छोड़कर धन की दृष्टि से समर्थ व्यक्ति के साथ अपने रागात्मक संबन्ध स्थापित करती है। क्योंकि उसके लिए धनप्राप्ति महत्त्वपूर्ण है, न कि रागात्मक संबन्ध की भावनात्मकता एवं सार्थकता।
पुनः कामसूत्रकार फलवती अर्थप्रतीति रूप काम का विवेचन करने वाले शास्त्र की आवश्यकता को बताते हुए कहते हैं कि ‘धर्म’ अलौकिक है, अतः उसका सम्यक परिज्ञान कराने वाले शास्त्र का होना युक्तिसंगत भी है एवं आवश्यक भी। ‘अर्थ’ की सिद्धि भी उपाय से ही होती है, अतएव अर्थसिद्धि के उपायों को बतलाने वाले तद्विषयक शास्त्र अर्थशास्त्र की भी आवश्यकता है। अब रही ‘काम’ एवं तद्विषयक शास्त्र की बात। तो धर्म के व्यापक स्वरूप को न समझने वाले व्यक्ति प्रायः कामशास्त्र की उपयोगिता नहीं मानते हैं, मोक्षमार्गी इसे अनैतिक एवं अश्लील मानते हुए त्याज्य समझते हैं तथा नीतिज्ञ काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान कोटि में खड़ा कर देते हैं।
वस्तुतः ‘काम’ न तो अनैतिक है और न ही अश्लील एवं त्याज्य। काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है। इसीलिए कामसूत्रकार कहते हैं कि मानवेतर जीवों में भी काम की स्वतः प्रवृत्ति पायी जाती है तथा यह नित्य एवं अविनाशी है, क्योंकि आत्मा रूपी पदार्थ में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। अतः प्राणियों को संसर्गसुख की प्राप्ति हेतु उनकी स्वाभाविक इच्छा ही पर्याप्त होती है क्योंकि पशु-पक्षियों में स्त्री जाति स्वतंत्र, बन्धनरहित एवं आवरणरहित होती है, ऋतुकाल में ही उनकी सोद्देश्य पूर्ति हो जाती है और यह प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक नहीं होती है। अतः उनका यह सहजधर्म किसी प्रकार के शास्त्ररूपी उपाय की आवश्यकता नहीं रखता है। किन्तु मानव के साथ ऐसी बात नहीं है। क्योंकि परस्पर संसर्ग में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के अधीन होते हैं, अतः उन्हें अपनी जैविक इच्छा की पूर्ति एवं पारस्परिक पराधीनता से बचने के लिए शास्त्र रूपी उपाय की आवश्यकता होती है तथा ऐसे सभी प्रकार के उपाय, जो दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं; का ज्ञान कामसूत्र का भलीभॉति अध्ययन करने से ही संभव है, क्योंकि शारीरिक स्थिति को व्यवस्थित बनाने में सहयोगी होने के कारण ‘काम’ भी आहार के ही समान है एवं धर्म-अर्थ फल भी। यह आचार्य वात्स्यायन की स्पष्ट धारणा है। चूंकि सभी प्रकार की प्रवृत्तियॉ पुरुषार्थ से ही सम्पन्न होती हैं, अतः उसके उपाय को जानना आवश्यक है। ‘काम’ को यदि त्याज्य मान लिया जाएगा तो धर्म और अर्थ पूर्णतः निष्प्रयोज्य हो जाएंगे।
इस अध्याय की समाप्ति करते हुए आचार्य वात्स्यायन प्राचीन विचारकों का मत व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जिस कार्य को करने में यह आशंका न हो कि परलोक में क्या होगा तथा जो कार्य सुख का नाश न करे; बुद्धिमान पुरुष ऐसे ही कार्य को करते हैं। अतः जो कार्य त्रिवर्ग का साधक हो या दो-एक का भी साधक हो उसे ही करना चाहिए किन्तु जो धर्म, अर्थ या काम केवल अपना ही साधक हो एवं शेष का विघातक हो उसे नहीं करना चाहिए। इस प्रकार परस्पर साधक ‘धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील मानव इस लोक में तथा परलोक में भी निष्कंटक आत्यंतिक सुख प्राप्त करता है।’
क्रमशः..........
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