संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (3)
कामशास्त्र का उद्भव एवं विकास:
कामशास्त्र के उद्भव का आदिकारण वेद है। जो ‘काम’ की उत्पत्ति परमपुरुष से स्वीकार करता है। इस ‘काम’ के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकृष्ट होकर संयोग करती है, क्योंकि संकल्प के मूल में काम की ही भावना होती है - ‘कामो संकल्प एव हि’। इसी कारण काम को ही सृष्टि माना गया है जिसका प्राणिमात्र पर दुर्दमनीय प्रभाव है। आचार्य वात्स्यायन काम की सार्वभौमिक परिभाषा देने के अनन्तर लोक में रूढ़ काम के व्यावहारिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि नारी-पुरुष का परस्पर विशेष अंगस्पर्शरूप आनन्द की जो सुखानुभूतिपरक फलवती अर्थप्रतीति होती है, प्रायः उसे ही लोक में ‘काम’ कहा गया है –
‘स्पर्शविशेष विषयात्वस्याभिमानिक सुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात्कामः'।(कामसूत्र 1/2/12)
यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्शविशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिकरूपेण आनन्ददायक व्यवहाररूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इसी कारण कामानन्द को ब्रह्मानन्दसहोदर माना गया है।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा कथित ‘फलवती अर्थप्रतीतिः’ शब्द में ही कामशास्त्र के विकास की प्रक्रिया को व्यंग्यात्मक रूप में स्पष्ट किया गया है, क्योंकि कामशास्त्र का जो धर्मार्थ समन्वित, अनुमोदित एवं मर्यादित कामोपभोगरूप उद्देश्य है उसकी आधारशिला वेदों में ही पड़ गयी थी। वेदों में प्रतिपादित यत्किंचित कामशास्त्रीय विचारपद्धति उपनिषत्काल में और विकसित हुयी। ‘छान्दोग्योपनिषद्’ में स्त्रीसंसर्ग की तुलना सामवेद के वामदेव्यगान से करते हुए कहा गया है कि - प्रेयसी को संदेश भेजना ‘हिंकार’ है। उसे प्रसन्न करने की चाटुकारिता ‘प्रस्ताव’ है। उसके साथ शयन ‘उद्गीथ’ है। संसर्ग ‘प्रतिहार’ है तथा मिथुनभाव के अवसान पर होने वाला वीर्यस्खलन ‘निधन’ है –
कामशास्त्र का उद्भव एवं विकास:
कामशास्त्र के उद्भव का आदिकारण वेद है। जो ‘काम’ की उत्पत्ति परमपुरुष से स्वीकार करता है। इस ‘काम’ के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकृष्ट होकर संयोग करती है, क्योंकि संकल्प के मूल में काम की ही भावना होती है - ‘कामो संकल्प एव हि’। इसी कारण काम को ही सृष्टि माना गया है जिसका प्राणिमात्र पर दुर्दमनीय प्रभाव है। आचार्य वात्स्यायन काम की सार्वभौमिक परिभाषा देने के अनन्तर लोक में रूढ़ काम के व्यावहारिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि नारी-पुरुष का परस्पर विशेष अंगस्पर्शरूप आनन्द की जो सुखानुभूतिपरक फलवती अर्थप्रतीति होती है, प्रायः उसे ही लोक में ‘काम’ कहा गया है –
‘स्पर्शविशेष विषयात्वस्याभिमानिक सुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात्कामः'।(कामसूत्र 1/2/12)
यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्शविशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिकरूपेण आनन्ददायक व्यवहाररूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इसी कारण कामानन्द को ब्रह्मानन्दसहोदर माना गया है।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा कथित ‘फलवती अर्थप्रतीतिः’ शब्द में ही कामशास्त्र के विकास की प्रक्रिया को व्यंग्यात्मक रूप में स्पष्ट किया गया है, क्योंकि कामशास्त्र का जो धर्मार्थ समन्वित, अनुमोदित एवं मर्यादित कामोपभोगरूप उद्देश्य है उसकी आधारशिला वेदों में ही पड़ गयी थी। वेदों में प्रतिपादित यत्किंचित कामशास्त्रीय विचारपद्धति उपनिषत्काल में और विकसित हुयी। ‘छान्दोग्योपनिषद्’ में स्त्रीसंसर्ग की तुलना सामवेद के वामदेव्यगान से करते हुए कहा गया है कि - प्रेयसी को संदेश भेजना ‘हिंकार’ है। उसे प्रसन्न करने की चाटुकारिता ‘प्रस्ताव’ है। उसके साथ शयन ‘उद्गीथ’ है। संसर्ग ‘प्रतिहार’ है तथा मिथुनभाव के अवसान पर होने वाला वीर्यस्खलन ‘निधन’ है –
‘उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं पारं गच्छति तन्निधनमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतम्’।(छान्दोग्य02/13/1)
दाम्पत्यसुख की तुलना पवित्र वामदेव्यगान से करके उसकी महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। पुनः ‘बृहदारण्यकोनिषद्’ के षष्ठ अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण में प्रतिपादित पुत्रमन्थकर्म या सन्तानोत्पत्तिविज्ञान, जो कि सम्भवतः कामशास्त्र का अब तक प्राप्त व्यवस्थित प्राचीनतम स्वरूप है; के द्वारा मर्यादित एवं सुव्यवस्थित दाम्पत्यसुख के कार्य-व्यापार को प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रकार उपनिषद् का ऋषि शिष्य को पूर्णरूपेण शिक्षित करने के बाद उसका समावर्तन संस्कार कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति देते हुए उससे कहता है –
‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्माप्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।’(तैत्तिरीय01/11/1)
अर्थात् ”वत्स ! सदा सत्य बोलना, धर्म का आचरण करते रहना, अप्रमत्त होकर वेदों का स्वाध्याय करना तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके सन्तानोत्पादन की परम्परा की वृद्धि करना।“ यहाँ सन्तानपरम्परा का विच्छेद न होने पाए, इसलिए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व ब्रह्मचारी को विधिवत् सन्तानोत्पत्तिविज्ञान रूप पुत्रमन्थकर्म की शिक्षा दी जाती थी; जो कामशास्त्र का औपनिषदिक रूप है।
कामशास्त्रीय ग्रन्थ-परम्परा:
प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित वेद ही त्रयीविद्या या त्रिवर्गशास्त्र आदि नामों से प्रसिद्ध है। क्योंकि छान्दोग्य श्रुति कहती है कि ‘प्रजापति ने लोकों के उद्देश्य से ध्यान रूप तप किया। उन अभितप्त लोकों से त्रयीविद्या की उत्पत्ति हुयी –
‘प्रजापतिः लोकान् अभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यः त्रयीविद्या संप्रास्रवत्तां अभ्यतपत्’। (छान्दोग्य02/23/2)
आचार्य वात्स्यायन भी कामसूत्र में कामशास्त्र की परम्परा बताते हुए कहते हैं कि ‘प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करके उसके जीवन को सुव्यवस्थित एवं नियमित करने के उद्देश्य से त्रिवर्गशास्त्र परक संविधान का सर्वप्रथम एक लक्ष श्लोकों में प्रवचन किया’ –
‘प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य साधनमध्यायानां शतसहस्त्रेणाग्रे प्रोवाच’। (कामसूत्र 01/01/05)
उपर्युक्त संविधानरूप त्रिवर्गशास्त्र का समर्थन एवं उल्लेख करते हुए महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कहते हैं:-
‘ततोऽध्यायसहस्त्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवाभिवर्णितः।।
त्रिवर्ग इति व्याख्यातो गण एष स्वयम्भुवा’। (महाभारत शान्तिपर्व 59/29-30)
इसी प्रकार मत्स्यपुराणकार भी शतकोटि प्रविस्तर त्रिवर्गसाधनभूत पुराणसंहिता का उल्लेख करते हैं -
‘पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृतं।
पुराणमेकमेवासीत् तदा कल्पान्तरेऽनघः।।
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्।’ (मत्स्यपुराण 53/3-4)
साधारणतया लोग त्रयीविद्या का आशय ‘ऋग्यजुःसाम’ परक ग्रहण करते हैं। किन्तु वेद तो स्वयमेव ब्रह्मविद्या के अधिष्ठान हैं और त्रयीविद्या उसके अंगरूप। यदि महाभारत, मत्स्यपुराण एवं कामसूत्र में कथित प्रजापति द्वारा लक्षश्लोक प्रतिपादित त्रिवर्गशास्त्र के साथ इस त्रयीविद्या का सामंजस्य स्थापित किया जाय, तो संगति स्वयमेव बैठ जाती है कि ‘छान्दोग्यश्रुति’ द्वारा कथित त्रयीविद्या, त्रिवर्गशास्त्र ही है तथा यह त्रयीविद्या/त्रिवर्गशास्त्र ब्रह्मविद्या का ही अंग है। यह शतसहस्त्र अध्यायों वाला त्रिवर्गशास्त्र धर्म, अर्थ एवं काम के सांगोपांग विवेचन एवं विधि व्यवस्था से परिपूर्ण था। ब्रह्मा ने उस शास्त्र के द्वारा समाज की व्यवस्था, सुरक्षा एवं उत्तरोत्तर विकास की भूमिका प्रस्तुत की।
कालान्तर में इस शतसहस्त्र प्रविस्तर पुराणसंहिता त्रिवर्गशास्त्र के धर्म, अर्थ एवं काम रूप तीनों स्तम्भों के अनुसार क्रमशः उस ‘आचारसंहिता’ के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नन्दिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया। यहीं से कामशास्त्र की ग्रन्थ-परम्परा का श्रीगणेश हुआ। इस ग्रन्थ परम्परा को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा रहा है -
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ।
(ख) वात्स्यायन कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ।
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ:
कामसूत्र की पूर्ववर्ती ग्रन्थपरम्परा का अधिकांश विवरण हमें कामसूत्र से ही प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के प्रथम अधिकरण में पूर्ववर्ती कामशास्त्रीय ग्रन्थों का उल्लेख किया है, जिनका विवरण इस प्रकार है -
०१. आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर प्रोक्त कामसूत्र:
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र का आदि आचार्य महादेवानुचर नन्दी को स्वीकारते हुए कहते हैं कि प्रजापति द्वारा प्रवचित त्रिवर्गशास्त्र में से एक हजार अध्यायों वाले कामशास्त्रीय भाग को उससे पृथक् कर महादेवानुचर नन्दी ने उसे स्वतंत्र रूप दे दिया –
‘महादेवानुचरश्च नन्दी सहस्त्रेणाध्यायानां पृथक् कामसूत्रं प्रोवाच’। (कामसूत्र1/1/8)
महादेवानुचर नन्दी का विस्तृत परिचय हमें शिवपुराण की शतरुद्रसंहिता के अध्याय 6 एवं 7 से प्राप्त होता है। जिसके अनुसार “नन्दी शालंकायनपुत्र शिलादि ऋषि के पुत्र थे। इनका जन्म शिव के वरदानस्वरूप हुआ था। इन्होंने सांगोपांग वेदों सहित अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन किया था। इनका विवाह मरुद्गण की कन्या ‘सुयशा’ के साथ हुआ था। भगवान शिव ने इन्हें अमरत्व प्रदान कर अपने गणनायकों का अध्यक्ष बना दिया था”। ऐसा ही उल्लेख वराहपुराण एवं कूर्मपुराण में भी प्राप्त होता है। कामसूत्र में सूत्र 1/1/8 की टीका में आचार्य यशोधर नन्दी के कामसूत्र के विषय में एक अनुश्रुति का उल्लेख करते हुए कहते हैं –
तथा हि श्रूयते - ‘दिव्यवर्षसहस्त्रं उमया सह सुरतसुखं अनुभवति महादेवे वासगृह द्वारगतो नन्दी कामसूत्रं प्रोवाच’ इति।
कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वात्स्यायन के समय में नन्दीप्रोक्त कामसूत्र लगभग नष्ट हो चुका था। रतिरहस्यकार आचार्य कोक्कोक भी रतिरहस्य में कामशास्त्र के आदि आचार्य के रूप में नन्दिकेश्वर का स्मरण करते हैं। रसरत्नसमुच्चयकार इनका स्मरण आयुर्वेदज्ञ के रूप में करते हुए इन्हें ‘नाभियन्त्र’ का आविष्कारक बताते हैं –
‘नाभियन्त्रमिदं प्रोक्तं नन्दिना सर्ववेदिना’। (रसरत्नसमुच्चय, पूर्वखण्ड - 9/26)
काव्यमीमांसा के प्रथम अध्याय, शास्त्रसंग्रह में आचार्य राजशेखर ने नन्दिकेश्वर को रस का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। मेघदूत उत्तरमेघ के 15वें श्लोक की विद्युल्लता टीका में टीकाकार आचार्य पूर्णसरस्वती ने पद्मिनी नायिका का छः श्लोकों में लक्षण प्रस्तुत करते हुए उक्त लक्षणवाक्यों को नन्दीश्वर कृत बताया है। उपर्युक्त विवरणों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर नाट्यशास्त्र, कामशास्त्र, रसशास्त्र, आयुर्वेद, वेदविद्या आदि के प्रामाणिक आचार्य थे।
क्रमशः ..........
इस प्रकार उपनिषद् का ऋषि शिष्य को पूर्णरूपेण शिक्षित करने के बाद उसका समावर्तन संस्कार कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति देते हुए उससे कहता है –
‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्माप्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।’(तैत्तिरीय01/11/1)
अर्थात् ”वत्स ! सदा सत्य बोलना, धर्म का आचरण करते रहना, अप्रमत्त होकर वेदों का स्वाध्याय करना तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके सन्तानोत्पादन की परम्परा की वृद्धि करना।“ यहाँ सन्तानपरम्परा का विच्छेद न होने पाए, इसलिए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व ब्रह्मचारी को विधिवत् सन्तानोत्पत्तिविज्ञान रूप पुत्रमन्थकर्म की शिक्षा दी जाती थी; जो कामशास्त्र का औपनिषदिक रूप है।
कामशास्त्रीय ग्रन्थ-परम्परा:
प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित वेद ही त्रयीविद्या या त्रिवर्गशास्त्र आदि नामों से प्रसिद्ध है। क्योंकि छान्दोग्य श्रुति कहती है कि ‘प्रजापति ने लोकों के उद्देश्य से ध्यान रूप तप किया। उन अभितप्त लोकों से त्रयीविद्या की उत्पत्ति हुयी –
‘प्रजापतिः लोकान् अभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यः त्रयीविद्या संप्रास्रवत्तां अभ्यतपत्’। (छान्दोग्य02/23/2)
आचार्य वात्स्यायन भी कामसूत्र में कामशास्त्र की परम्परा बताते हुए कहते हैं कि ‘प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करके उसके जीवन को सुव्यवस्थित एवं नियमित करने के उद्देश्य से त्रिवर्गशास्त्र परक संविधान का सर्वप्रथम एक लक्ष श्लोकों में प्रवचन किया’ –
‘प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य साधनमध्यायानां शतसहस्त्रेणाग्रे प्रोवाच’। (कामसूत्र 01/01/05)
उपर्युक्त संविधानरूप त्रिवर्गशास्त्र का समर्थन एवं उल्लेख करते हुए महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कहते हैं:-
‘ततोऽध्यायसहस्त्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवाभिवर्णितः।।
त्रिवर्ग इति व्याख्यातो गण एष स्वयम्भुवा’। (महाभारत शान्तिपर्व 59/29-30)
इसी प्रकार मत्स्यपुराणकार भी शतकोटि प्रविस्तर त्रिवर्गसाधनभूत पुराणसंहिता का उल्लेख करते हैं -
‘पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृतं।
पुराणमेकमेवासीत् तदा कल्पान्तरेऽनघः।।
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्।’ (मत्स्यपुराण 53/3-4)
साधारणतया लोग त्रयीविद्या का आशय ‘ऋग्यजुःसाम’ परक ग्रहण करते हैं। किन्तु वेद तो स्वयमेव ब्रह्मविद्या के अधिष्ठान हैं और त्रयीविद्या उसके अंगरूप। यदि महाभारत, मत्स्यपुराण एवं कामसूत्र में कथित प्रजापति द्वारा लक्षश्लोक प्रतिपादित त्रिवर्गशास्त्र के साथ इस त्रयीविद्या का सामंजस्य स्थापित किया जाय, तो संगति स्वयमेव बैठ जाती है कि ‘छान्दोग्यश्रुति’ द्वारा कथित त्रयीविद्या, त्रिवर्गशास्त्र ही है तथा यह त्रयीविद्या/त्रिवर्गशास्त्र ब्रह्मविद्या का ही अंग है। यह शतसहस्त्र अध्यायों वाला त्रिवर्गशास्त्र धर्म, अर्थ एवं काम के सांगोपांग विवेचन एवं विधि व्यवस्था से परिपूर्ण था। ब्रह्मा ने उस शास्त्र के द्वारा समाज की व्यवस्था, सुरक्षा एवं उत्तरोत्तर विकास की भूमिका प्रस्तुत की।
कालान्तर में इस शतसहस्त्र प्रविस्तर पुराणसंहिता त्रिवर्गशास्त्र के धर्म, अर्थ एवं काम रूप तीनों स्तम्भों के अनुसार क्रमशः उस ‘आचारसंहिता’ के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नन्दिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया। यहीं से कामशास्त्र की ग्रन्थ-परम्परा का श्रीगणेश हुआ। इस ग्रन्थ परम्परा को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा रहा है -
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ।
(ख) वात्स्यायन कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ।
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ:
कामसूत्र की पूर्ववर्ती ग्रन्थपरम्परा का अधिकांश विवरण हमें कामसूत्र से ही प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के प्रथम अधिकरण में पूर्ववर्ती कामशास्त्रीय ग्रन्थों का उल्लेख किया है, जिनका विवरण इस प्रकार है -
०१. आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर प्रोक्त कामसूत्र:
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र का आदि आचार्य महादेवानुचर नन्दी को स्वीकारते हुए कहते हैं कि प्रजापति द्वारा प्रवचित त्रिवर्गशास्त्र में से एक हजार अध्यायों वाले कामशास्त्रीय भाग को उससे पृथक् कर महादेवानुचर नन्दी ने उसे स्वतंत्र रूप दे दिया –
‘महादेवानुचरश्च नन्दी सहस्त्रेणाध्यायानां पृथक् कामसूत्रं प्रोवाच’। (कामसूत्र1/1/8)
महादेवानुचर नन्दी का विस्तृत परिचय हमें शिवपुराण की शतरुद्रसंहिता के अध्याय 6 एवं 7 से प्राप्त होता है। जिसके अनुसार “नन्दी शालंकायनपुत्र शिलादि ऋषि के पुत्र थे। इनका जन्म शिव के वरदानस्वरूप हुआ था। इन्होंने सांगोपांग वेदों सहित अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन किया था। इनका विवाह मरुद्गण की कन्या ‘सुयशा’ के साथ हुआ था। भगवान शिव ने इन्हें अमरत्व प्रदान कर अपने गणनायकों का अध्यक्ष बना दिया था”। ऐसा ही उल्लेख वराहपुराण एवं कूर्मपुराण में भी प्राप्त होता है। कामसूत्र में सूत्र 1/1/8 की टीका में आचार्य यशोधर नन्दी के कामसूत्र के विषय में एक अनुश्रुति का उल्लेख करते हुए कहते हैं –
तथा हि श्रूयते - ‘दिव्यवर्षसहस्त्रं उमया सह सुरतसुखं अनुभवति महादेवे वासगृह द्वारगतो नन्दी कामसूत्रं प्रोवाच’ इति।
कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वात्स्यायन के समय में नन्दीप्रोक्त कामसूत्र लगभग नष्ट हो चुका था। रतिरहस्यकार आचार्य कोक्कोक भी रतिरहस्य में कामशास्त्र के आदि आचार्य के रूप में नन्दिकेश्वर का स्मरण करते हैं। रसरत्नसमुच्चयकार इनका स्मरण आयुर्वेदज्ञ के रूप में करते हुए इन्हें ‘नाभियन्त्र’ का आविष्कारक बताते हैं –
‘नाभियन्त्रमिदं प्रोक्तं नन्दिना सर्ववेदिना’। (रसरत्नसमुच्चय, पूर्वखण्ड - 9/26)
काव्यमीमांसा के प्रथम अध्याय, शास्त्रसंग्रह में आचार्य राजशेखर ने नन्दिकेश्वर को रस का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। मेघदूत उत्तरमेघ के 15वें श्लोक की विद्युल्लता टीका में टीकाकार आचार्य पूर्णसरस्वती ने पद्मिनी नायिका का छः श्लोकों में लक्षण प्रस्तुत करते हुए उक्त लक्षणवाक्यों को नन्दीश्वर कृत बताया है। उपर्युक्त विवरणों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर नाट्यशास्त्र, कामशास्त्र, रसशास्त्र, आयुर्वेद, वेदविद्या आदि के प्रामाणिक आचार्य थे।
क्रमशः ..........
achha shodh
जवाब देंहटाएंbehatar prastuti ke liye aabhaar